परिषह सहने से ही कर्म कटते हैं

परिषह सहने से ही कर्म कटते हैं

एक साधु अपने शिष्यों को विद्या अध्ययन करा रहा था। एक दुष्ट अज्ञानी आया और उसने साधु पर थूक दिया। साधु के शिष्यगण, जो विद्या अध्ययन कर रहे थे, उस दुष्ट मनुष्य को मारने के लिए दौड़े। यह देखकर साधु की आँखों में आंसू आ गए। साधु सिसक-सिसक कर रोने लगा।

शिष्यगण कहने लगे कि हम नगर के सम्राट से कहकर उस व्यक्ति को अवश्य ही कठोर दंड दिलवाएंगे।

साधु ने कहा - मैं उसके थूकने के कारण दुःखी नहीं हुआ, तुम्हारे इस गलत आचरण से दुःखित हुआ। इस व्यक्ति ने जब थूका, तो मैंने सोचा कि मेरे पूर्व के किए हुए पाप का ऋण चुक गया, चलो! निपटारा हुआ और भार उतर गया। इसी प्रतीक्षा में मैं साधु बन कर रह रहा था, परंतु तुमने सब बेकार कर दिया, क्योंकि किए हुए कर्म भोगे बिना नहीं छूटते हैं।

तुम्हें एक सच्ची घटना बताता हूँ।

एक बार जब एक दिगंबर संत विहार कर रहे थे, उनके पास एक अज्ञानी मुसलमान वृद्ध आया और बोला कि तुझे शर्म नहीं आती। तू बहू-बेटियों के बीच नंगा होकर घूम रहा है।

संत ने समझाया कि नंगा वह है जिसके मन में विकार हैं। कपड़ों के पहनने पर भी इंद्रियों पर कंट्रोल नहीं है। जैन संत बालक के समान होते हैं, जिसके दर्शन करने से सामने वाले के मन में भी कोई विकार नहीं होता है।

संत के साथ में जो श्रावक गण थे, उन्हें वृद्ध पर बहुत क्रोध आया और उसे मारने को दौड़े, परंतु संत ने सबको शांत किया और कहा - परिषह सहन करने से पूर्व के किए हुए कर्म उतर रहे हैं। आप सब क्रोध न करें। इसने तो अज्ञानतावश यह बात कही है।

बाद में मुसलमान वृद्ध को ज्ञान हुआ कि मेरी सोच कितनी ग़लत थी और वह दिगंबर संत के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि वास्तव में विकार तो भावों में होता है। अतः हमें भी जानना चाहिए कि हर परिस्थिति में समता भाव रखना ही साधुपना है।

सुविचार - शिक्षा से अधिक महत्त्व है संस्कारों का। कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी साधना के बल पर चरम शिखर तक जा सकता है, किन्तु संस्कार हीन व्यक्ति के लिए साधनापथ पर एक कदम भी रखने के लिए स्थान नहीं है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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