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Showing posts from July, 2022

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 9)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 9 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का छठा पूर्वभव - अच्युत स्वर्ग में इन्द्र अच्युतेन्द्र के रूप में भावी तीर्थंकर के जीव का और प्रतीन्द्र के रूप में गणधर के जीव का पुनः मिलाप एक बार वह मेघनाद मेरुपर्वत के नन्दनवन में विद्या साध रहा था। ठीक उसी समय ‘अच्युतेन्द्र’ भी वहाँ वन्दना करने आए। उन्होंने मेघनाद को देख कर कहा - हे मेघनाद! पूर्वभव में हम दोनों भाई थे। मैं मरकर अच्युतेन्द्र हुआ हूँ और तुझे नरक में जाना पड़ा। वहाँ से निकल कर तू मेघनाद विद्याधर हुआ है। विषयभोगों की तीव्र लालसा से तूने घोर नरक के दुःख भोगे हैं। अब तू सावधान हो जा। इन विषयभोगों को छोड़ और संयम की आराधना कर। तुझे सम्यग्दर्शन तो है ही, अब चारित्र धर्म को अंगीकार कर। तृष्णा की आग विषयभोगों के द्वारा शांत नहीं होती, अपितु चारित्रबल से ही शांत होती है। इसलिए तू आज ही भोगों को तिलांजलि देकर परमेश्वरी जिनदीक्षा धारण कर। यह दीक्षा मोक्ष प्रदान करने वाली है, जिसकी पूजा देव भी करते हैं। अपने भाई अच्युतेन्द्र से चारित्र की अपार महिमा तथा वैराग्य का महान् उपदेश सुन कर ...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 13)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 13 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का चौथा पूर्वभव - ऊर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिन्द्र अपने पौत्र कनकशान्ति को केवलज्ञान प्राप्त होने के समाचार सुनते ही वज्रायुध चक्रवर्ती ने अति आनन्दित होकर ‘आनन्द’ नाम की भेरी बजवा कर उत्सव मनाया और वे धूमधाम से उन की वन्दना-पूजा के लिए गए। वहाँ अनेक देव, विद्याधर भी उत्सव में आए हुए थे। वह उपसर्ग करने वाला विद्याधर भी प्रभु की महिमा देख कर उनकी शरण में आया और वैरभाव छोड़ कर उसने धर्म की प्राप्ति की। वज्रायुध चक्रवर्ती ने स्तुतिपूर्वक प्रार्थना की - हे भगवन्! सांसारिक कषायों से डर कर मैं आपकी शरण में आया हूँ। मुझे धर्मोपदेश सुनाने की कृपा कीजिए। श्री कनक केवली ने अपनी दिव्य ध्वनि में कहा - यह संसार अनादि-अनन्त है। अज्ञानी जीव उसका पार नहीं पा सकते। परन्तु भव्य जीव ऐसे अनादि-अनन्त संसार का भी अंत कर देते हैं। जो एक बार धर्म की नौका में बैठ जाते हैं, वे भवसमुद्र को पार करके मोक्षपुरी में पहुँच जाते हैं। धर्म का मार्ग माता-पिता के समान हितकारी है। वह जन्म-मरण के दुःखों से उबार कर जीव को उत्तम मोक...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 8)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 8 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का छठा पूर्वभव - अच्युत स्वर्ग में इन्द्र अनन्तवीर्य वासुदेव के अच्युत स्वर्ग में इन्द्र की पर्याय में अवतरित होते ही वहाँ मंगल वाद्य बजने लगे। देव-देवियाँ उन्हें वन्दन करके उनका आदर-सत्कार करने लगे। वे जानते थे कि यह विभूति मेरे पूर्वजन्म की आराधना का फल है, लेकिन इस वैभव का रजकण भी मेरी आत्मा का नहीं है। इस प्रकार निर्मोह रूप से उन्होंने स्वर्गलोक में विराजमान जिनप्रतिमा की भक्ति सहित पूजा की। उन अच्युत इन्द्र को महान् अवधिज्ञान और विक्रिया आदि ऋद्धियाँ प्राप्त थी। वे तीर्थंकरों के पंचकल्याणक में जाते, इन्द्रसभा में सम्यग्दर्शन की चर्चा करते और उत्तम चारित्र की भावना भाते रहे। इस प्रकार सुखपूर्वक स्वर्ग की आयु व्यतीत करते रहे। नरकगामी अनन्तवीर्य को सम्बोधन   अपराजित और अनन्तवीर्य के पिता स्मितसागर भी निदानबन्ध करके धरणेन्द्र की पर्याय में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने अवधिज्ञान से जाना कि पूर्वभव का मेरा पुत्र अनन्तवीर्य मरकर नरक में गया है, इसलिए वे तुरन्त उसे प्रतिबोधन देने नरक में पहुँच...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 7)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 7 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का 7 वाँ पूर्वभव - अपराजित बलभद्र की जिनदीक्षा प्रभाकरी नगरी में अपराजित और अनन्तवीर्य सुखपूर्वक तीन खण्ड का राज्य कर रहे थे। एक बार अपराजित बलदेव की पुत्री सुमतिदेवी के विवाह की तैयारियाँ चल रही थी। अति भव्य विवाह मण्डप में सुमतिदेवी सुन्दर शृंगार करके सजधज कर आई। तभी आकाश से एक देवी उतरी और सुमति से कहने लगी - हे सखी! सुन! मैं तेरे हित की बात कहती हूँ। मैं स्वर्ग की देवी हूँ। तू भी पूर्वभव में स्वर्ग की देवी थी और हम दोनों सहेलियाँ थी। एक बार हम दोनों नन्दीश्वर जिनालय की पूजा करने गए थे। फिर हमने मेरु जिनालय की पूजा-वन्दना की। वहाँ एक ऋद्धिधारी मुनि के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। उनसे धर्मोपदेश सुनकर हमने उनसे संसार से मुक्ति के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा - तुम चौथे भव में मोक्ष प्राप्त करोगी। देवी कहने लगी - हे सुमति! यह सुन कर हम दोनों अति प्रसन्न हुई थी और हम दोनों ने मुनिराज के समक्ष एक-दूसरे को यह वचन दिया था कि हम में से जो पहले मनुष्यलोक में जाएगा, उसे दूसरी देवी संबोध कर आत्महित...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 6)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 6 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का 8 वाँ पूर्वभव - आनत स्वर्ग में अमिततेज और श्रीविजय ने जिनदीक्षा धारण करके संन्यासपूर्वक शरीर छोड़ा और 13 वें आनत स्वर्ग में देव पर्याय में उत्पन्न हुए। उनके नाम ‘रविचूल’ और ‘मणिचूल’ थे। उस देवविमान में 100 योजन लम्बा, 50 योजन चौड़ा और 75 योजन ऊँचा रत्नमय अकृत्रिम जिनमंदिर है। वहाँ जाकर दोनों देवों ने जिनबिम्ब की पूजा की। उस स्वर्गलोक में अनुपम वैभव व सुख सामग्री थी। दोनों देवों को अवधिज्ञान और अनेक लब्धियाँ प्राप्त थी। उन्होंने पुण्य के फल से वहाँ असंख्य वर्षों तक उत्तम दैवी सुख भोगे, पर वे नश्वर पुण्य वैभव उन्हें तृप्त नहीं कर सके। उससे उन्हें आकुलता ही मिलती थी। अंत में वे थककर मनुष्य लोक में आने की तैयारी करने लगे। उनके शेष बचे पुण्य भी उनके साथ मनुष्य लोक में आए। जानते हो कि वे मनुष्य लोक में कहाँ अवतरित हुए ? भगवान शान्तिनाथ जी का 7 वाँ पूर्वभव - विदेहक्षेत्र में अपराजित बलभद्र और अनन्तवीर्य वासुदेव जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में वत्सकावती देश है। वहाँ सदैव अनेक केवली भगवन्त और म...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 5)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 5 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का 9 वाँ पूर्वभव - भरतक्षेत्र में अमिततेज विद्याधर अमिततेज और श्रीविजय की जिन दीक्षा अमिततेज और श्रीविजय ने केवली प्रभु के उपदेश से अपूर्व सम्यग्दर्शन द्वारा चैतन्य निधान प्राप्त किए और देशव्रत अंगीकार करके अपनी-अपनी नगरी में लौट आए। महाराजा अमिततेज के जीवन में एक महान् परिवर्तन हो गया था। विद्याधरों की दोनों श्रेणियों के स्वामी होने से वे विद्याधरों के ‘चक्रवर्ती’ थे। इतने महान् राजवैभव में रहते हुए भी वे अपनी आत्मसाधना को क्षण भर भी नहीं भूलते थे। महाराजा अमिततेज का जीवन देख कर इस प्रश्न का समाधान अनायास ही हो जाता है कि गृहस्थ दशा में भी आत्मज्ञान के बल से धर्म साधना चलती रहती है, क्योंकि ज्ञानी की चेतना राग व संयोग से अलिप्त रहती है। एक बार महाराजा अमिततेज और श्रीविजय रमणीक तीर्थों की यात्रा पर निकले। वहाँ एक शांत उद्यान में अमरगुरु और देवगुरु मुनिराजों को देखा। उनकी वीतरागी आत्मतेज से प्रकाशित शांतमुद्रा को देख कर वे दोनों मुग्ध हो गए। श्रीविजय ने उनसे अपने पिता त्रिपृष्ठ वासुदेव के पूर...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 4)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 4 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का 9 वाँ पूर्वभव - भरतक्षेत्र में अमिततेज विद्याधर ‘अशनिघोष’ विद्याधर से अमिततेज और श्रीविजय का युद्ध एक बार राजा श्रीविजय अपनी रानी सुतारा के साथ विमान में बैठ कर वन-विहार करने गए। वहाँ उनका पूर्वभव का शत्रु कपिल का जीव ‘अशनिघोष’ विद्याधर राजा था। वह सुतारा पर मोहित होकर उसका अपहरण करके ले गया। इससे क्रोधित होकर अमिततेज और श्रीविजय विशाल सेना लेकर अशनिघोष से युद्ध करने लगे। अशनिघोष भयभीत होकर भाग गया। उसके सद्भाग्य से उसी समय ‘विजय बलभद्र मुनि’, जो केवली रूप में विचरण कर रहे थे, गंधकुटी सहित वहाँ पधारे। अशनिघोष ने उन भगवान की धर्मसभा में प्रवेश किया और प्रभु के दर्शन से उसका चित्त शांत हुआ। अमिततेज और श्रीविजय भी क्रोधाविष्ट होकर उसे मारने के लिए उसके पीछे धर्मसभा में आए, पर वहाँ आते ही उनका क्रोध दूर हो गया। प्रभु के समीप आकर सबके परिणाम शांत हो गए। उसी समय अशनिघोष की माता सुतारा को साथ लेकर वहाँ आ पहुँची और उसे उसके पति को सौंप कर अपने पुत्र के अपराध की क्षमा-याचना करने लगी। वास्तव में जि...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 3)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 3 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का 9 वाँ पूर्वभव - भरतक्षेत्र में अमिततेज विद्याधर देवलोक से निकल कर वे चारों जीव भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए। श्रीषेण राजा का जीव विजयार्द्ध पर ‘अमिततेज विद्याधर’ हुआ, रानी सिंहनन्दिता का जीव उसकी पत्नी ‘ज्योतिप्रभा’ हुई, अनिन्दिता रानी का जीव त्रिपृष्ठ वासुदेव का पुत्र ‘श्रीविजय’ हुआ, और ब्राह्मण कन्या सत्यभामा का जीव अमिततेज की बहिन ‘सुतारा’ हुई जो श्रीविजय की पत्नी बनी। सत्यभामा के पूर्व पति दुष्ट कपिल का जीव भव-भव में भटकते हुए ‘अशनिघोष’ विद्याधर हुआ। भरतक्षेत्र के विजयार्द्ध पर्वत पर रथनूपुर नाम की एक सुन्दर नगरी है। श्रीषेण राजा का जीव स्वर्गलोक से चल कर उस नगरी में ‘अमिततेज’ नाम का विद्याधर हुआ। उस काल में भरतक्षेत्र में 11 वें तीर्थंकर का शासन चल रहा था। ‘अमिततेज’ वहाँ के राजा ‘ज्वलनजटी’ नामक राजा का पौत्र था। वे जैन धर्म के प्रेमी, सम्यग्दृष्टि और चरमशरीरी थे। महाराजा ‘ज्वलनजटी’ के गुणवान पुत्र ‘अर्ककीर्ति’ का विवाह पोदनपुर के राजकुमार ‘त्रिपृष्ठ वासुदेव’ की बहिन ‘ज्योतिमाला’ के साथ...

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 2)

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सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 2 ) भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव भगवान शान्तिनाथ जी का 10 वाँ पूर्वभव - सौधर्म स्वर्ग में श्रीप्रभदेव भोगभूमि में उत्पन्न हुए उन श्रीषेण आदि चारों जीवों ने असंख्य वर्षों तक कल्पवृक्षों के वचनातीत सुख भोगे। वहाँ 10 प्रकार के कल्पवृक्ष वहाँ के पुण्यवान जीवों को उनकी इच्छानुसार (1) अमृत समान निर्दोष मादक पेय, (2) उत्तम वाद्य, (3) हार आदि दिव्य आभूषण, (4) सुगन्धित पुष्प मालाएँ, (5) रत्नमणि के दीपक, (6) दिव्य प्रकाश, (7) राजभवन व नृत्यशाला, (8) अमृत समान स्वादिष्ट भोजन, (9) सुवर्ण व रत्नों के बर्तन, (10) अति सुन्दर वस्त्र इत्यादि उत्तम भोग सामग्री देते हैं। ऐसी सुन्दर भोगभूमि में केवल इन्द्रिय विषयों की भोग सामग्री ही मिलती है, वे कल्पवृक्ष चैतन्य का अतीन्द्रिय सुख या सम्यक्त्व नहीं दे सकते। ऐसा सुख तो केवल अपने चैतन्य की साधना से ही मिल सकता है। वहाँ सभी जीव शान्त व भद्रपरिणामी होते हैं। भोगभूमि में पुण्यप्रताप से उत्पन्न होने वाले सिंह आदि पशु भी मांसाहारी नहीं होते। वहाँ कीड़े-मकोड़े आदि तुच्छ जीव नहीं होते। कभी-कभी ऋद्धिधारी मुनिवर ...