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Showing posts from October, 2023

सजा या पुरस्कार

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सजा या पुरस्कार क्या सभी को झूठ की सजा और सत्य का पुरस्कार मिलता है? नगर के एक गर्म दूध विक्रेता के यहां ग्राहकों की कतार ही लगी रहती थी। एक दिन एक आयकर अधिकारी उसकी दुकान पर पहुंचे और उससे बड़ी जिज्ञासा से पूछा - भाई! क्या बात है कि और दूध वाले दुकान पर बैठे मक्खियां मारते नजर आते हैं जबकि प्रायः प्रतिदिन ही आपकी दुकान पर ग्राहकों की लंबी कतार लगी रहती है? तो दुकानदार ने तपाक से सगर्व उत्तर दिया - जनाब! मैं पहलवान दूध वाला हूँ। मेरी खुद की गाय-भैंसें हैं और मैं उनको काजू, बादाम, किशमिश खिलाता हूँ, जिससे हमारा दूध बहुत पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं गाढ़ा होता है। प्रश्नकर्ता बोले - अच्छा! यह बात है तो इससे आपकी बहुत आय होती होगी। देखिए! मैं आयकर निरीक्षक हूँ। अपनी आय का विवरण आप मुझे दीजिए। आयकर निरीक्षक का नाम सुनते ही उसके मुख पर हवाइयां उड़ने लगी। अब तो उसका अहंकार पानी-पानी हो रहा था। उसने तो कभी आय-व्यय का हिसाब ही नहीं रखा था। बड़े आदर के साथ वह आयकर इंस्पेक्टर को दुकान के अंदर ले गया। बहुत उम्दा दूध तैयार कर पिलाया और 101 नगद नारायण भेंट करने पर ही उनसे छुटकारा पाया। थोड़ी देर बाद एक अन्य स...

सपने सा संसार

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सपने सा संसार किसी समय एक बहुत गरीब व्यक्ति अपने यौवन काल में बहुत बड़ा मालदार बन गया। वह 18 वर्ष की आयु में अपने पिता के पास से केवल एक धोती और एक लोटा लेकर चला था। काशी पहुँच कर धर्म का आश्रय लेकर व्यापार करने लगा। भाग्य ने साथ दिया, पुरुषार्थ ने जोर मारा और व्यापार अच्छा चल पड़ा। लाखों रुपए भी कमाए, शानदार कोठी भी बनवा ली। नौकर-चाकर के भरोसे घर गृहस्थी कब तक चलती? सो एक रूपसी कन्या को ब्याह लाए। पुत्र-पुत्रियों की किलकारियों से हवेली गूँज उठी। पत्नी अत्यंत सौम्य व सुगृहिणी थी। सोचने लगा कि गाँव में माँ-बाप को छोड़ आया था, अब जाकर उनकी कुछ खबर ले आऊँ। भगवान की दया से वे भी कुछ दिन मौज के दिन देख लें। बस! फिर क्या था? विचार को आचार का रूप दे दिया। माँ-बाप उसके साथ काशी आ गए। घर की रौनक चौगुनी हो गई। सारे गाँव में सब के मुख पर यही चर्चा थी कि इस जैसा सुखी और संपन्न व्यक्ति दूसरा नहीं है। दो माह गुजर गए। माँ-बाप को खेत खलिहानों की स्मृतियां पुकारने लगी। आज सुबह ही माँ-बाप को गाँव छोड़कर आता हूँ - यह कह कर वह माँ-बाप के साथ चल पड़ा। 2 दिन मस्ती से गाँव में गुजरे। तीसरी रात वह अपने शहर काशी लौ...

ईमानदारी

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ईमानदारी एक दीनदयाल नामक व्यापारी मथुरा में रहता था। उसने अपने व्यापार में बहुत धन कमाया था। उसे बस एक ही बात की चिंता रहती थी कि उसके कोई पुत्र नहीं था। इसी कारण धन-धान्य से परिपूर्ण होते हुए भी वह स्वयं को बहुत दुर्भाग्यशाली समझता था। उसे संतान के न होने का बहुत दुःख था। दीनदयाल को बस यही चिंता सता रही थी कि उसके बाद उसकी संपत्ति का क्या होगा? एक दिन उसकी दुकान पर एक युवक आया और बोला कि मैं बेरोजगार हूँ। मुझे अपने यहाँ काम पर रख लीजिए। आपकी बहुत कृपा होगी। दीनदयाल द्वारा पूछने पर उसने बताया कि मैं निकट के ही गाँव का रहने वाला हूँ और मेरे मां-बाप नहीं हैं। सेठ बोला - ‘ठीक है। मैं तुमको काम पर रख लेता हूँ। दोनों समय के भोजन के अतिरिक्त रहने की जगह और 100 रुपए प्रति माह वेतन दूँगा, परंतु मेरी एक ही शर्त है कि तुम को ईमानदारी से काम करना पड़ेगा।’ युवक ने जवाब दिया कि मुझे आपकी शर्त स्वीकार है। मैं आपको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। दीनदयाल ने उसे प्रसन्नता से रख लिया। युवक ने भी लग्न, परिश्रम और ईमानदारी से काम किया तथा दीनदयाल का हृदय जीत लिया। युवक को दीनदयाल के यहां काम करते-करते 3 महीने व...

आठ पापों का घड़ा

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आठ पापों का घड़ा एक बार कवि कालिदास बाजार में घूमने निकले। एक स्त्री एक घड़ा और कुछ कटोरियाँ लेकर बैठी थी ग्राहकों के इंतजार में। कविराज को कौतूहल हुआ कि यह क्या बेचती है। बस! उन्होंने उसके पास जाकर पूछा - बहिन! तुम क्या बेचती हो? उसने कहा - मैं पाप बेचती हूँ। मैं सब लोगों से कहती हूँ कि मेरे पास सब तरह के पाप हैं। जो मर्जी हो, ले लो। लोग भी चाव पूर्वक ले जाते हैं। कालीदास उलझन में पड़ गए। उन्होंने पूछा - घड़े में कैसे पाप भरे हैं? स्त्री ने बताना आरम्भ किया - बुद्धि नाश, पागलपन, लड़ाई-झगड़े, बेहोशी, विवेक का नाश, सद्गुण का नाश आदि। इनसे सुखों का अंत हो जाता है और सारा परिवार दुःखमय संकट के जीवन व्यतीत करता है और जीवन के अंत में नरक ले जाने वाले तमाम दुष्ट कृत्य भोगता है। कालीदास बोले - अरी बहिन! इतने सारे पाप बताती हो! साफ-साफ बताओ कि आखिर इस घड़े में क्या है? स्त्री ने बताया - देखो! इसमें शराब है जो सब पापों की जननी है। जो इसे पीते हैं, वे इन सभी दुष्कार्यों को करने लग जाते हैं और अंत में दुःखों को भोग कर नरक की यातनाएँ सहते हैं। कवि कालिदास उस महिला की चतुराई की सारी बातें सुनकर असमंजस में...

उपयोग - स्व और पर का

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उपयोग - स्व और पर का एक दिन की बात है, एक संत बार-बार दर्पण देख रहे थे। स्वाभाविक जिज्ञासा लिए उनके शिष्यों ने पूछा - गुरुवर! आप बार-बार दर्पण क्यों देख रहे हो? संत बोले - तुम लोगों की जिज्ञासा उचित है। तुम लोग सोच रहे होंगे कि भला मुझ जैसे कुरूप व्यक्ति को दर्पण देखने की क्या ज़रूरत है? लेकिन मैं इस कुरूप शरीर के भीतर बैठे अपने वास्तविक स्वरूप को देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि वह खूबसूरत है या बाहर के कुरूप शरीर जैसा बदसूरत ही है। मैं यही जानने, देखने का प्रयास इस दर्पण द्वारा कर रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि खूबसूरत और बदसूरत दिखने वाले दोनों प्रकार के लोगों को दर्पण देखना चाहिए। शिष्यों ने पूछा - ऐसा क्यों, महाराज? संत बोले - बच्चों! बदसूरत को भी दर्पण देखते रहना चाहिए, ताकि उसे प्रति समय याद रहे कि वह केवल बाहर से बदसूरत है, लेकिन उसके अंदर बैठा हुआ स्वरूप उसे याद दिलाता है कि खूबसूरती चर्म से नहीं, कर्म से होती है और खूबसूरत को दर्पण इसलिए देखना चाहिए जैसा वह स्वयं को खूबसूरत दिखाई देता है, वैसा ही संसार को अपने कर्मों से भी खूबसूरत दिखाई दे। हमें भी इस बोध कथा के माध्यम से अपने उपयोग ...

संतों को मत सताओ

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संतों को मत सताओ कुणाल प्रदेश के भयंकर जंगल में दो मुनि तपस्या कर रहे थे। वे ध्यान और स्वाध्याय में लीन रहते थे। भीषणतम तप के कारण उन्हें विभिन्न प्रकार की ऋद्धियां एवं सिद्धियां प्राप्त हो गई। वर्षा काल आया। सर्वत्र वर्षा हुई, लेकिन उस कुणाल प्रदेश में वर्षा नहीं हुई, जहां तपस्वी संत तपस्या में लीन थे। गाय चराने वाले ग्वाले बहुत चिंतित हो रहे थे। वर्षा के अभाव में गाएँ क्या चरेंगी? हम इनका पालन-पोषण कैसे करेंगे? कुछ शरारती ग्वाले, तपस्वी संतों के पास जाकर बोलने लगे कि इन संतों ने वर्षा को बांध रखा है। वे अनभिज्ञ ग्वाले एक दोहा जोर-जोर से बोलने लगे - और गांव में मेंह बरसे, कुणाल में तरसे, आ संता रा पात्र फोड़े, सौ सौ आंगल मेंह बरसे। अन्य प्रदेशों में अच्छी वर्षा हो रही है और हम कुणाल वासी पानी के लिए तरस रहे हैं। इन संतों के पात्र फोड़ दें तो अवश्य ही सौ-सौ अंगुल वर्षा हो सकती है। वे सभी गुस्से में लाल होकर संतों पर टूट पड़े। मुनियों पर कंकर-पत्थर भी डालने शुरू कर दिये। विभिन्न प्रकार के निन्दनीय कष्ट देने लगे। मारपीट करने से भी वे नहीं सकुचाए। तपस्वी संतों के शरीर से शोणित की धारा प्रवाह...

साहस का सम्मान

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साहस का सम्मान राजा जनक की सवारी गुजर रही थी। राज कर्मचारी उनकी सुविधा के लिए रास्ते से राहगीरों को हटा रहे थे। इससे लोगों को काफी कठिनाई हो रही थी। लोगों को अपने आवश्यक कार्य छोड़कर रुकना पड़ रहा था। उसी रास्ते से अष्टावक्र भी कहीं जा रहे थे। राज कर्मचारियों ने उन्हें भी हटने को कहा, लेकिन अष्टावक्र ने हटने से इनकार कर दिया और कहा कि राजा के लिए यह उचित नहीं है कि वह प्रजा के आवश्यक कार्यों को रोककर अपनी सुविधा का प्रबंध कराए। यदि राजा अनीति करता है तो एक विद्वान व्यक्ति का कर्तव्य है कि उसे रोके और समझाए। आप कृपया राजा तक मेरा यह संदेश पहुंचा दें। राज कर्मचारियों ने अष्टावक्र को बंदी बना लिया और उन्हें जनक के सामने उपस्थित कर दिया। राजा जनक अष्टावक्र से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने कहा - ऐसे निर्भीक विद्वान ही राज्य की सच्ची संपत्ति हैं। उन्हें दंड नहीं, सम्मान दिया जाना चाहिए। जनक ने अष्टावक्र से क्षमा मांगी और उनसे निवेदन किया कि वह राजगुरु का पद संभालें। अष्टावक्र ने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। विनम्र निवेदन यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने ...

विरक्त राजा

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विरक्त राजा एक गृहस्थ श्रावक राजधानी के बाहर, नगरी के मुख्य दरवाजे के पास प्रातः सामायिक कर रहा था। उस नगर के राजा का स्वर्गवास हो चुका था। उसके कोई संतान भी नहीं थी। अतः मंत्रियों ने सलाह की कि प्रातः काल जो नगर के मुख्य दरवाजे पर बैठा मिल जाए, उसे ही राजा बना दिया जाए। उस गृहस्थ श्रावक को ही सैनिक लोग पकड़ कर ले गए और उसको राजतिलक करके राजा बना दिया। उसने अपना धोती-दुपट्टा एक पेटी में सुरक्षित रख दिया। राजा ने कहा - राजकाज आप लोग चलाएं, मैं तो सिर्फ सब कुछ देखता रहूँगा। एक दिन कुछ झगड़े का मामला आया। मंत्रियों ने पूछा - महाराज! इस मामले का क्या किया जाए? राजा ने अपना धोती-दुपट्टा पहन कर कहा - मुझे तो यह करना है। आपको क्या करना है सो आप जानें। जैसा पहले होता आया है, वैसा ही करो। यदि हम भी अपने जीवन में मोक्ष-प्राप्ति का एक लक्ष्य निर्धारित कर लें, तो दुनिया का कोई व्यवहार हमें उससे विचलित नहीं कर सकता। दो नावों पर पैर रख कर मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। विनम्र निवेदन यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने...

तैरने की कला

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तैरने की कला बैरिस्टर बाबू रमेश कुमार अपनी पत्नी को साथ लेकर विलायत से रवाना हुआ। फर्स्ट क्लास की टिकट ले कर जहाज में वह दंपति उल्लसित मन से बैठ गया। बाबू के गले में टाई, आँखों पर चश्मा और कलाई में घड़ी थी। वह सीट पर बैठा हुआ दैनिक समाचार पत्र पढ़ रहा था। उसके मन में बैरिस्टर होने का बहुत घमंड था। वह अपने आप को विद्या वारिधि समझता था। इतने में एक जहाज में काम करने वाला खलासी, बाबू के पास आया और हाथ जोड़कर बोला - बाबू साहब! घड़ी में कितने बजे हैं? बाबू अखबार पढ़ने में इतने तल्लीन थे कि उन्हें कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। दो-तीन बार पूछने पर बाबू का ध्यान गया तो रोष भरी वाणी में बोला - टेबल पर घड़ी पड़ी है, तुम स्वयं देख लो। क्यों बिना मतलब शोर मचा रहे हो? चले जाओ यहां से। खलासी नम्र भाव से बोला - बाबू साहब! मुझे घड़ी देखनी नहीं आती। बाबू - क्या? इस वैज्ञानिक युग में तूने घड़ी देखना नहीं सीखा है। तब तो तेरी दो आना जिंदगी पानी में चली गई। बाबू - अच्छा तुम पढ़े कहाँ तक हो? खलासी - बाबूजी! आप तो मेरे साथ मज़ाक करने लग गए। मैं कहाँ पढ़ा हूँ। मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है। बाबू - नहीं पढ़ने के कारण...