ईमानदारी

ईमानदारी

एक दीनदयाल नामक व्यापारी मथुरा में रहता था। उसने अपने व्यापार में बहुत धन कमाया था। उसे बस एक ही बात की चिंता रहती थी कि उसके कोई पुत्र नहीं था। इसी कारण धन-धान्य से परिपूर्ण होते हुए भी वह स्वयं को बहुत दुर्भाग्यशाली समझता था। उसे संतान के न होने का बहुत दुःख था। दीनदयाल को बस यही चिंता सता रही थी कि उसके बाद उसकी संपत्ति का क्या होगा?

एक दिन उसकी दुकान पर एक युवक आया और बोला कि मैं बेरोजगार हूँ। मुझे अपने यहाँ काम पर रख लीजिए। आपकी बहुत कृपा होगी।

दीनदयाल द्वारा पूछने पर उसने बताया कि मैं निकट के ही गाँव का रहने वाला हूँ और मेरे मां-बाप नहीं हैं। सेठ बोला - ‘ठीक है। मैं तुमको काम पर रख लेता हूँ। दोनों समय के भोजन के अतिरिक्त रहने की जगह और 100 रुपए प्रति माह वेतन दूँगा, परंतु मेरी एक ही शर्त है कि तुम को ईमानदारी से काम करना पड़ेगा।’

युवक ने जवाब दिया कि मुझे आपकी शर्त स्वीकार है। मैं आपको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा।

दीनदयाल ने उसे प्रसन्नता से रख लिया। युवक ने भी लग्न, परिश्रम और ईमानदारी से काम किया तथा दीनदयाल का हृदय जीत लिया। युवक को दीनदयाल के यहां काम करते-करते 3 महीने व्यतीत हो गए। उसने एक दिन दीनदयाल से कहा - सेठ जी! मैं अपने गाँव जाना चाहता हूँ। कृपया मुझे मेरा वेतन दे दीजिए।

दीनदयाल ने कहा - तुम कल अपना वेतन लेकर अपने गांव चले जाना। अगले दिन दीनदयाल ने उस युवक को अपने पास बुलाया और उसके हाथ पर तीन रुपए रखते हुए कहा - यह लो अपना वेतन।

युवक ने तीन रुपए देखकर आश्चर्य से कहा - सेठ जी! आप यह क्या दे रहे हैं? मेरा तीन माह का वेतन तीन सौ रुपए होता है।

सेठ जी ने कहा - मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि ईमानदारी से काम करना लेकिन अब तुम बेईमान बन रहे हो। 

युवक की आँखों में आंसू आ गए। वह मन ही मन सोचने लगा कि सेठ स्वयं ही बेईमानी कर रहा है और मुझे बेईमान बतला रहा है। वह तीन रुपए लेकर चला आया और कुछ सोच ही रहा था कि इस बीच एक बूढ़ा फकीर फटे पुराने कपड़े पहने हुए वहाँ आया। वह फकीर बोला - बेटा! दो-तीन दिन से भूखा हूँ। कुछ खाने को दे दो।

युवक ने उसे देखा और अपने हाथ से एक रुपया निकाल कर उसे दे दिया। उसने कहा - लो, बाबा! खाना खा लेना।

अब युवक के पास केवल दो रुपए शेष रह गए थे। उसने सोचा कि इन दो रुपयों से ही कुछ दिन काम चल जाएगा। अभी वह कुछ ही दूर गया था कि उसे सड़क पर बैठा हुआ एक अपाहिज भिखारी मिला, जो बहुत ही दुःखी स्वर में कह रहा था कि मेरी पत्नी बीमार है। बेटा! मुझ पर कुछ दया करो।

युवक ने उसकी दर्द भरी आवाज सुनकर उसे दो रुपए दे दिए और आगे चल दिया। भिखारी ने उसे आवाज़ दी और कहा - बेटा! तुम्हारी जेब में अपने भोजन के लिए भी पैसे नहीं बचे हैं, फिर भी मुझे यह तूने क्यों दे दिए?

भिखारी की बात सुनकर युवक सोच में पड़ गया। उसने मन में सोचा कि आखिर इस बूढ़े व्यक्ति को किस प्रकार पता चला कि मेरी जेब में सिर्फ दो ही रुपए हैं! उस युवक ने भिखारी से पूछा - बाबा! आपको किस प्रकार पता चल गया कि मेरे पास अब और पैसे नहीं हैं।

उसी समय भिखारी ने अपना डंडा फेंक दिया और वहीं खड़ा हो गया। युवक चकित था। जिसे वह अपाहिज समझ रहा था, वह तो भला-चंगा व्यक्ति था। थोड़ी ही देर में जब वह भिखारी अपने वास्तविक स्वरूप में सामने आया तो वह कोई और नहीं, दीनदयाल सेठ ही था। उसने युवक की प्रशंसा की और उसे गले से लगा लिया। 

वह बोला - ‘बेटा! मैंने तुम्हारी अच्छी प्रकार परीक्षा कर ली है। परीक्षा में तुम खरे उतरे हो। तुम्हारी मेहनत, ईमानदारी तथा लग्न ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। आजकल के समय में ऐसे युवक कम ही मिलते हैं, जिनके हृदय में अपने कर्तव्य के प्रति प्रामाणिकता व निष्ठा का भाव हो तथा कर्तव्य-परायणता, ईमानदारी व लगन से कार्य करने की भावना हो। आज से तुम मेरे पुत्र हो। मेरे साथ चलो और मेरे कारोबार को संभालो।’

सेठ उस युवक को प्रसन्नता के वातावरण में अपने घर ले गया और सेठ-सेठानी ने उसे अपना बेटा बनाकर रख लिया। युवक ने भी उस सेठ को अपना पिता मानकर खूब सुख देने की प्रतिज्ञा की और जन्म भर उसकी आज्ञा का पालन करते हुए सेवा करता रहा। सेठ को पुत्र मिल गया और युवक को माता-पिता मिल गए।

सुविचार - युवावस्था में ग्रहण किए गए धर्म के सद्भाव, वृद्धावस्था तक हमारा साथ देते हैं।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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