उपयोग - स्व और पर का
उपयोग - स्व और पर का
एक दिन की बात है, एक संत बार-बार दर्पण देख रहे थे। स्वाभाविक जिज्ञासा लिए उनके शिष्यों ने पूछा - गुरुवर! आप बार-बार दर्पण क्यों देख रहे हो?
संत बोले - तुम लोगों की जिज्ञासा उचित है। तुम लोग सोच रहे होंगे कि भला मुझ जैसे कुरूप व्यक्ति को दर्पण देखने की क्या ज़रूरत है? लेकिन मैं इस कुरूप शरीर के भीतर बैठे अपने वास्तविक स्वरूप को देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि वह खूबसूरत है या बाहर के कुरूप शरीर जैसा बदसूरत ही है। मैं यही जानने, देखने का प्रयास इस दर्पण द्वारा कर रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि खूबसूरत और बदसूरत दिखने वाले दोनों प्रकार के लोगों को दर्पण देखना चाहिए।
शिष्यों ने पूछा - ऐसा क्यों, महाराज?
संत बोले - बच्चों! बदसूरत को भी दर्पण देखते रहना चाहिए, ताकि उसे प्रति समय याद रहे कि वह केवल बाहर से बदसूरत है, लेकिन उसके अंदर बैठा हुआ स्वरूप उसे याद दिलाता है कि खूबसूरती चर्म से नहीं, कर्म से होती है और खूबसूरत को दर्पण इसलिए देखना चाहिए जैसा वह स्वयं को खूबसूरत दिखाई देता है, वैसा ही संसार को अपने कर्मों से भी खूबसूरत दिखाई दे।
हमें भी इस बोध कथा के माध्यम से अपने उपयोग को संभालते हुए हर पल यही सोचना है कि मैं कौन हूँ? मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है? ‘स्व’ क्या है और ‘पर’ क्या है?
बच्चों! मैं यही जानने का प्रयास कर रहा हूँ। हम सभी जानते हैं कि आत्मा और शरीर को धारण करने वाला हमारा जीवन दर्पण के समान है, जो संसार में अपने उपयोग द्वारा अंदर से प्रतिबिंबित होकर दूसरों को दिखाई देता है।
मनुष्य का हृदय ही सच्चा हरि-मन्दिर, प्रभु-परमात्मा का सच्चा निवास स्थान है। यह मनुष्य-जन्म परमात्मा ने हमें अमानत के रूप में सौंपा है, इसलिए हमें इसे साफ-सुथरा रखना है। तभी हमारे अन्दर प्रभु का प्रकाश प्रकट हो सकता है।
यह हमारा शरीर ही परमात्मा का सच्चा हरि-मन्दिर है, जिसमें सत्य की अखंड ज्योति जल रही है। पर कितने दुःख और अफसोस की बात है कि हम इन्सानों द्वारा बनाये गये मन्दिरों को तो कितना साफ-सुथरा रखते हैं, परन्तु परमात्मा द्वारा बनाये गए सच्चे शरीर-रूपी मन्दिर की ओर हमारा जरा भी ध्यान नहीं है और इस शरीर रूपी पवित्र मन्दिर को कभी हम नशीले पदार्थों से गन्दा करते हैं, तो कभी झूठ-निन्दा-चुगली द्वारा गन्दा करते हैं, तो कभी मांसाहार खाकर गन्दा करते हैं, तो कभी बुरे विचारों द्वारा, तो कभी बुरी नज़रों द्वारा इसे गन्दा करते रहते हैं और जब तक यह बुरे कर्मों की गन्दगी का कचरा हमारे अन्दर है, तब तक हमें अपने अन्दर प्रभु का प्रकाश दिखाई नहीं देगा।
सुविचार - जीव का भला-बुरा उसके पुण्य-पाप के अनुसार होता है। बाह्य वस्तुएँ तो निमित्त मात्र हैं। जब तक आत्मा के दर्पण में राग-द्वेष का मैल रहता है, तब तक आत्मा से दिव्य प्रकाश प्रकट नहीं हो सकता।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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