विरक्त राजा

विरक्त राजा

एक गृहस्थ श्रावक राजधानी के बाहर, नगरी के मुख्य दरवाजे के पास प्रातः सामायिक कर रहा था। उस नगर के राजा का स्वर्गवास हो चुका था। उसके कोई संतान भी नहीं थी। अतः मंत्रियों ने सलाह की कि प्रातः काल जो नगर के मुख्य दरवाजे पर बैठा मिल जाए, उसे ही राजा बना दिया जाए। उस गृहस्थ श्रावक को ही सैनिक लोग पकड़ कर ले गए और उसको राजतिलक करके राजा बना दिया।

उसने अपना धोती-दुपट्टा एक पेटी में सुरक्षित रख दिया। राजा ने कहा - राजकाज आप लोग चलाएं, मैं तो सिर्फ सब कुछ देखता रहूँगा। एक दिन कुछ झगड़े का मामला आया। मंत्रियों ने पूछा - महाराज! इस मामले का क्या किया जाए? राजा ने अपना धोती-दुपट्टा पहन कर कहा - मुझे तो यह करना है। आपको क्या करना है सो आप जानें। जैसा पहले होता आया है, वैसा ही करो।

यदि हम भी अपने जीवन में मोक्ष-प्राप्ति का एक लक्ष्य निर्धारित कर लें, तो दुनिया का कोई व्यवहार हमें उससे विचलित नहीं कर सकता। दो नावों पर पैर रख कर मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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