चौबोली रानी (भाग - 28)

चौबोली रानी (भाग - 28)

दोस्तों! आइए बढ़ते हैं कथा के अंतिम चरण तक।

लीलावती ने कहा - स्वामी! आपने अपने बारे में तो सब कुछ बता दिया। शेष यात्रा में विभिन्न राज्यों के राजा आपसे भेंट करने आये और जो सम्मान एवं आत्मीय भाव आपके प्रति प्रदर्शित किया, उससे मैं आपके कौशल एवं कीर्ति के संदर्भ में पर्याप्त अनुमान लगा सकती हूँ। आर्यावर्त में आपकी अक्षुण्ण कीर्ति व्याप्त है। आपके स्नेहिल व्यवहार की मुझे प्रत्यक्ष अनुभूति है किन्तु एक रहस्य मुझे अभी तक बेचैन किये हुये है। आपने एक रात्रि में चार बार मुझे बोलने के लिये बाध्य किया, आप बुद्धि कौशल से ऐसी कथायें कहते थे जो कहानी का अंत आते-आते कुतूहल का सृजन करती और प्रश्नवाचक बन जाती। ऐसी अभिनव कथायें मैंने आज तक नहीं सुनी। आपकी कथायें आपकी बुद्धि का चमत्कार हैं किन्तु दीपक, पुष्प-पात्र, जल-कुम्भ और मेरा कंठहार भी बोलता था, आपके प्रश्नों का उत्तर देता था। निर्जीव वस्तुयें कैसे बोल सकती हैं? निर्जीव वस्तुओं के बोलने का रहस्य क्या है?

विक्रमादित्य ने कहा - प्रिये! मेरे संदर्भ में तुम सब कुछ तो जान चुकी हो। शेष अवन्ति पहुंच कर तुम स्वयं देख लोगी। कुछ रहस्य तो अनावृत रहने दो।

रानी लीलावती ने कहा - स्वामी! आप इस रहस्य को अवश्य बतायें। इस विषय में मैं जितना सोचती हूँ, पहेली उतनी ही उलझती जाती है। मैं इस रहस्य का उत्तर खोजने में असमर्थ हूँ।

सम्राट विक्रमादित्य बोले - यह सत्य है कि निर्जीव वस्तुयें बोलती नहीं हैं, किन्तु जब तुमने स्वयं इन्हें बोलते सुना तो विश्वास करने में हानि क्या है?

लीलावती ने कहा - स्वामी! सत्य इतना सूक्ष्म और गहन है कि कभी-कभी उसका जो रूप दिखता है, वास्तव में वह नहीं होता और जो होता है, बुद्धि उसे ग्रहण नहीं कर सकती। फिर जो वास्तव में असत्य है, उसे कैसे स्वीकार कर लूँ। मैं इस रहस्य को जानने के लिए अत्यंत आतुर हूँ।

सम्राट विक्रमादित्य ने कहा - देवी! रहस्य के पीछे लम्बी कहानी है, किन्तु मैं तुम्हें संक्षेप में बताता हूँ।

उज्जयिनी के मरघट के समीप एक सघन वृक्ष पर एक शक्तिशाली यक्ष रहता था। उसे अपने वश में करना संभव नहीं था। मुझे भी यक्ष के संबंध में ज्ञात हुआ कि यक्ष बहुत शक्तिशाली है, किन्तु अत्यंत उपयोगी भी है। बड़ी कठिनाई से यक्ष से साक्षात्कार हुआ, किन्तु उसकी भी एक शर्त थी कि अपने निवास से मेरे निवास तक लाने में वह मुझे कथा सुनाता और जैसे मैं प्रश्न करता, वैसे वेताल भी मुझसे पूछता और कहता - विक्रमादित्य! तू तो बड़ा न्यायप्रिय है, मेरे प्रश्न का उत्तर दे और विवश होकर मुझे बोलना पड़ता और मेरे बोलते ही वह अदृश्य हो जाता। इस प्रकार उसने मुझे अनेक कथायें सुनाई और मैं बोलता रहा। बड़ी कठिनाई से यक्ष को वश में कर सका। वही यक्ष वेताल दीपशिखा, जलकुम्भ, पुष्पहार, कंठहार में बोलता था।

लीलावती बोली - स्वामी! क्या आप इन अदृश्य योनियों पर विश्वास करते हैं? क्या ये मनुष्य को हानि पहुंचाती हैं?

विक्रमादित्य बोले - देवी! यह संसार विचित्र है। प्रकृति अद्भुत है। इसका रहस्य समझना अत्यंत कठिन कार्य है। इतना अवश्य है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, ऊंच-नीच, योनियाँ मनुष्य के स्वयं के कृत कर्मों का फल है। इस विशाल विश्व में मनुष्य से अधिक ज्ञानवान कोई नहीं है। उसे कोई अदृश्य योनि, प्रेतात्मा, यक्ष, किन्नर हानि नहीं पहुंचा सकते। मनुष्य को क्षति पहुंचाने वाला यदि कोई है तो मात्र उसका भय। फिर किसी को शत्रु या मित्र बनाना हमारे व्यवहार पर ही तो निर्भर है।

लीलावती बोली - स्वामी! वेताल को अधीन करने में आपको कितना समय लगा होगा?

विक्रमादित्य ने कहा - वेताल देव योनि का जीव है, देव को वश में करना कठिन कार्य है। वेताल मात्र कृष्ण पक्ष की मध्य रात्रि में देहधारी होकर मिलता था। अब तो स्मरण भी नहीं रहा कि कितनी रातें वेताल को अधीन करने में बिताई। अब वेताल छाया की भांति मेरे साथ रहता है।

सूर्योदय की सुहानी वेला में सम्राट विक्रमादित्य ने रानी लीलावती के साथ उज्जयिनी की सीमा में प्रवेश किया। नगर सीमा से राजमहलों तक वीथिकाओं में दोनों और खड़ी नर-नारियों की भीड़ मंगल गीत ध्वनियों के साथ फूल बरसा रही थी।

दोस्तों! विक्रमादित्य को दो हजार वर्ष से ऊपर हो गये फिर भी उनके नाम की अमिट छाप भारतीय जनमानस पर अंकित है। किसी कवि ने कहा भी है -

ज़िंदगी ऐसी बना, जिन्दा रहे दिलशाद तू !!

जब न दुनिया में रहे, दुनिया को आये याद तू !!

बहुत-बहुत धन्यवाद!!

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