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Showing posts from September, 2022

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 19)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 19 ) भगवान नेमिनाथ जी का केवलज्ञान कल्याणक नेमिप्रभु ने सहस्राम्र वन में आत्मध्यान में अपने उपयोग को लगाया। तुरन्त ही उन्हें शुद्धोपयोग में सातवाँ गुणस्थान प्रगट हुआ। मात्र संज्ज्वलन के अतिरिक्त समस्त कषाय दूर हो गए हैं। मनःपर्यय ज्ञान एवं चौदहपूर्व रूप श्रुतकेवलीपना उदित हुआ है और अनेक दिव्य लब्धियाँ भी प्रकट हुई हैं। विवाह के समय बंधन से छुड़ाए गए वे पशु भी प्रभु के पीछे-पीछे वन में आकर उनके निकट ही रहने लगे। वास्तव में शान्ति किसे प्रिय नहीं होती ? हज़ारों मोक्षार्थी जीवों ने भी अपने जीवन को ज्ञान-वैराग्य में लगाया हुआ है। उस काल में गिरनार का गौरव भी इतना आश्चर्यकारी था कि वहाँ मोक्षसाधक मुनिवरों का समूह ऐसे शोभा देता था मानो ‘सिद्धों का मेला’ लगा हो। इन्द्रों ने और श्री कृष्ण-बलभद्र आदि ने भी मस्तक झुका कर बारम्बार नेमिनाथ मुनिराज की दर्शन-स्तुति की। दीक्षा के पश्चात् तीसरे दिन नेमिनाथ मुनिराज आहार के लिए जूनागढ़ नगरी में पधारे। तब श्रद्धा आदि गुणों से विभूषित राजा वरदत्त ने उन तीर्थंकर मुनिराज को शुद्ध आहारदान देकर प्रथम पारणा कराया और बाद म...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 18)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 18 ) राजुलमती का वैराग्य प्रभु के साथ हज़ारों राजाओं ने भी मुनिदीक्षा ग्रहण की। वन के उस शांत वातावरण से आकर्षित होकर गिरिवन के वनराज भी वहाँ आकर शांति से बैठ गए और मुग्ध होकर उनकी शांत मुद्रा के दर्शन करने लगे। एक ओर सहस्राम्र वन में नेमिप्रभु आत्मध्यान कर रहे हैं, दूसरी ओर राजमहल के झरोखे में खड़ी हुई राजकुमारी राजुल नेमि दूल्हाराजा को वैराग्य प्राप्त करते देख कर तथा रथ से उतर कर वन की ओर जाते देख कर मन में कहने लगी - हे प्रभो! यदि आपको विवाह नहीं करना था, तो फिर बारात लेकर यहाँ तक क्यों आए ? आप दूल्हा क्यों बने ? .... या फिर जैसे पशुओं को बन्धन से मुक्त किया है, वैसे ही मुझे भी संसार-बन्धन से छुड़ाने का यह एक नाटक था। क्या आप मुझे भी मोक्षपुरी की राह पर ले जाने के लिए यहाँ पधारे थे ? आप धन्य हैं, प्रभो! आपकी लीला अपार है। हे प्रभु! आप मुनि होकर वन में जाएंगे, तो मैं क्या रो-धो कर संसार में ही बैठी रहूँगी ? मैं भी वीर-पुत्री हूँ। आपकी अर्द्धांगिनी कहला चुकी हूँ। मैं भी आपके ही मार्ग पर जाऊँगी, दूसरे मार्ग पर नहीं। आप मुनिराज होंगे, तो मैं आर्...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 17)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 17 ) भगवान नेमिनाथ का दीक्षा कल्याणक दूल्हा नेमिकुमार संसार से विरक्त होकर रथ को मोड़ कर वन की ओर जा रहे हैं, उन्हें विवाह नहीं करना है। यह समाचार सुनते ही नगर में चारों ओर हाहाकार मच गया। महाराजा समुद्रविजय और बलभद्र आदि ने उन्हें विवाह करने के लिए तरह-तरह से समझाया, किन्तु वे अपने निर्णय में अडिग थे। श्री कृष्ण को भी अपने कृत्य पर पश्चाताप होने लगा। परन्तु संसार के पिंजरे से छूटा हुआ सिंह वैराग्य धारण करके वन की ओर चल पड़ा। वह फिर से पिंजरे में बंद होने के लिए क्यों आता ? श्री कृष्ण ने तुरन्त उन पशुओं को बंधन से मुक्त कर दिया, पर आश्चर्य!! वे सभी जीव दौड़ कर वन की ओर अपने स्थान पर जाने के बदले नेमिकुमार के निकट आकर निर्भयता से उनके चरणों में बैठ गए और उनकी वैराग्यपूर्ण शांत मुद्रा देखने लगे। ऐसा लगता था कि जैसे उनको भी वैराग्य हो गया हो और वे मृत्यु से बचाने के लिए प्रभु का उपकार मान रहे हों कि ‘हे प्रभु! जिस प्रकार आपने हमें इस समय मरण से बचाया है, उसी प्रकार सदा के लिए हमें जन्म-मरण के बंधन से छुड़ाकर हमारा उद्धार करो।’ कितना अद्भुत दृश्य था वह!...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 16)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 16 ) भगवान नेमिनाथ जी का वैराग्य नेमिकुमार ने दूल्हा बन कर बारात के साथ राजुलमती को वरने के लिए द्वारिका नगरी से जूनागढ़ की ओर प्रस्थान किया। विभिन्न प्रकार के मंगल वाद्यों एवं शहनाई के मधुर स्वरों से सारा वातावरण गूँज रहा था। बारात की शोभा अद्भुत थी। जिसका संचालन श्री कृष्ण और बलभद्र जैसे महान् पुरुष कर रहे हों, जिसमें हज़ारों राजा-महाराजा बाराती बन कर चल रहे हों; रथ में नेमिकुमार जैसे भावी तीर्थंकर दूल्हा बने बैठे हों; ऐसी बारात की तो अनुपम शोभा होनी ही थी। दिव्य अलंकारों से तथा प्रसन्नकारी मुद्रा में सुशोभित नयनाभिराम प्रभु नेमिकुमार, राजुल के नेत्रों एवं चित्त को आकर्षित कर रहे थे। आओ, हम भी उनकी बारात का आनन्द लेते हैं। बारात अति प्रसन्नता व उल्लास से जूनागढ़ में पहुँच रही है। राजकुमारी राजुल अपनी सहेलियों के साथ विनोद करती हुई राजमहल के झरोखे से अपने हृदय सम्राट को एकटक निहार रही है। इतने में अचानक खरगोश, हिरण आदि पशुओं का करुण क्रन्दन नेमिकुमार के कानों में पड़ा। एक बाड़े में बंद भूखे-प्यासे मासूम पशु नेमिकुमार की ओर देख कर चीत्कार कर रहे थे। ...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 15)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 15 ) नेमिकुमार के विवाह की योजना अब बलभद्र और श्री कृष्ण को ऐसा लगने लगा कि नेमिकुमार के मन में संसार के लिए किंचित राग जागृत होने लगा है, इसलिए महाराजा समुद्रविजय की सम्मति से उन्होंने नेमिकुमार के विवाह के विषय में विचार किया और श्री कृष्ण, महाराजा उग्रसेन की पुत्री राजुल से विवाह की बातचीत के लिए जूनागढ़ गए। महाराजा उग्रसेन स्वयं को धन्य मानने लगे कि मेरी पुत्री राजुलकुमारी को नेमिकुमार जैसा पति मिले, इससे अधिक सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है ? जब राजुल को ज्ञात हुआ कि भावी तीर्थंकर नेमिकुमार उसके पति होंगे, तो उसके हृदय में दिव्य हर्ष की अनुभूति हुई। इधर द्वारिका में भी नेमिकुमार राजुल से विवाह करने के लिए सहमत हो गए और सारी नगरी में हर्ष का वातावरण छा गया। एक ओर तो नेमि-राजुल के विवाह का अवसर निकट आ रहा था, दूसरी ओर श्री कृष्ण के चित्त में शान्ति नहीं थी।bउनका अंतर एक अव्यक्त भय से अशांत था। सत्यभामा और राजसभा वाली घटना से उन्हें चिन्ता थी कि नेमिकुमार मेरी अपेक्षा अधिक बलवान व पराक्रमी है। वे बात ही बात में मुझे जीत सकते हैं, इसलिए विवाह...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 14)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 14 ) पिछले प्रकरण में हमने देखा कि राजसभा में नेमि-कृष्ण के बल की परीक्षा हुई और नेमिकुमार के बल की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध हुई। इस घटना के पश्चात् श्री कृष्ण के मन में गहरी चिन्ता होने लगी कि कदाचित् नेमिकुमार मेरा राज्य ले लेंगे। वे नहीं जानते थे कि नेमिकुमार को ऐसे तुच्छ राज्य से मोह कहाँ था ? उन्हें तो जन्म से ही तीनों लोकों का राज्य प्राप्त था। जन्म होते ही मेरु पर्वत पर अभिषेक करके स्वयं इन्द्र भी उनके चरणों का सेवक बन गया था। वे श्री कृष्ण के इस छोटे-से राज्य का क्या करेंगे ? परन्तु तीव्र राज्यलिप्सा के कारण श्री कृष्ण को भय लगने लगा। वे कोई ऐसा उपाय विचारने लगे कि किसी तरह नेमिकुमार दीक्षा ले लें। एक बार महाराजा श्री कृष्ण अपनी रानियों के साथ सरोवर के किनारे क्रीड़ा करने गए। उनके साथ नेमिकुमार भी थे। जलक्रीड़ा के बाद नेमिकुमार ने अपनी भाभी सत्यभामा से कहा - ‘भाभी! मेरा यह वस्त्र भी धो देना।’ सत्यभामा तुनक कर बोली - ‘कुँवरजी! तुम मुझे वस्त्र धोने का आदेश देने वाले कौन हो ? मैं क्या तुम्हारी दासी हूँ ? मेरे पति त्रिखण्डाधिपति चक्रवर्ती, नाग...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 13)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 13 ) राजा जरासंध से युद्ध और श्री कृष्ण की विजय अंधबुद्धि राजा जरासंध विशाल सेना एवं सुदर्शनचक्र सहित युद्ध के लिए द्वारिका नगरी की ओर चल पड़ा। यही तो कर्म की गति है। द्वारिका नगरी की ओर तीर्थंकर के जन्म का आनन्द मनाने की बजाय वह दुर्बुद्धि अपने सर्वनाश के मार्ग पर चल पड़ा। नारद जी ने श्री कृष्ण को समाचार दिया कि राजा जरासंध लड़ने के लिए आ रहा है। शूरवीर श्री कृष्ण को यह समाचार पाकर किंचित भी भय या आकुलता नहीं हुई। वे नेमिकुमार के पास आए और विनयपूर्वक उनसे कहा - हे देव! राजा जरासंध युद्ध के लिए आ रहा है। आपके प्रताप से मैं उसे शीघ्र ही जीत लूंगा। मेरे लौट कर आने तक आप इस राज्य की सँभाल कर रक्षा करना। श्री कृष्ण की बात सुनकर नेमिकुमार मुस्कुराए। वे जानते थे कि इस युद्ध में श्री कृष्ण की ही विजय होगी। राजा जरासंध राजगृही से निकल कर विशाल सेना सहित कुरुक्षेत्र आया और दूसरी ओर से श्री कृष्ण भी विशाल सेना सहित द्वारिका से चल कर कुरुक्षेत्र में आ पहुँचे। यही बात ध्यान देने योग्य है कि तीर्थंकर के आसपास की भूमि इतनी पावन होती है कि वहाँ युद्ध आदि महान हिं...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 12)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 12 ) राजा जरासंध का क्रोध इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान नमिनाथ जी का शासनकाल 5 लाख वर्ष तक चला। तत्पश्चात् बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी का अवतार हुआ। उनकी आयु 1000 वर्ष तथा शरीर की ऊँचाई 10 धनुष थी। बचपन से ही उनका अलौकिक जीवन देख कर लोग कह उठते थे कि इस बालक का जीवन जगत से भिन्न प्रकार का है। उनका अन्तर्मुखी जीवन ज्ञानचेतना से सुशोभित था और धर्मसाधना की अचिन्त्य महिमा को प्रगट करता था। प्रभु का जीवन शांत और गम्भीर था, जो अन्य जीवों के चैतन्य भावों की उर्मियों को भी जागृत करता था। देवों द्वारा निर्मित द्वारिका नगरी की शोभा भी अद्भुत थी। अनेक मोक्षगामी चरमशरीरी धर्मात्मा जीव वहाँ निवास करते थे। सौराष्ट्र देश का विशाल समुद्र देख कर प्रभु नेमिकुमार अपने अंतर में महान् चैतन्य-रत्नाकर का ध्यान धरते थे। उस समय उनकी मुखमुद्रा पर समुद्र से भी अधिक गम्भीर शांत रस का समुद्र दिखाई देता था। राजा जरासंध से युद्ध और श्री कृष्ण की विजय - एक बार मगध देश के कुछ व्यापारी समुद्र-मार्ग से व्यापार करने निकले। वे पुण्योदय से मार्ग भूलकर नवनिर्मित द्वारिका नगरी आ प...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 11)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 11 ) द्वारिका नगरी की रचना और भगवान नेमिनाथ का अवतार जब यादव सौराष्ट्र देश में आकर समुद्रतट पर निवास करने लगे, तब श्री कृष्ण और भावी तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के पुण्यप्रताप से कुबेर ने समुद्र के बीचों-बीच 12 योजन की अति सुन्दर द्वारामती नगरी की रचना की। जहाँ तीर्थंकर का अवतार होना है और जिस नगरी की रचना देवों ने की हो, उस नगरी की शोभा का क्या कहना! महाराजा समुद्रविजय, वसुदेव, बलभद्र तथा श्री कृष्ण सहित समस्त यादवों ने उस नगरी में मंगल प्रवेश किया और सुखपूर्वक रहने लगे। उस द्वारिका पुरी के बीचों-बीच रत्नजड़ित 1000 शिखरों से शोभायमान भव्य जिन मंदिर था। उसमें सर्व नगरजन अरिहंतदेव के दर्शन-पूजन एवं धर्मसाधन करते थे। वह नगरी इन्द्रपुरी के समान सुशोभित थी। इतने में एक आश्चर्यकारी घटना हुई। राजमहल के प्रांगण में प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा होने लगी और स्वर्गलोक की कुमारिका देवियाँ आकर महारानी शिवादेवी की सेवा करने लगी। इन उत्तम चिह्नों से आपको ज्ञात हो गया होगा कि सौराष्ट्र देश में एक तीर्थंकर के आगमन की तैयारी होने लगी थी। जब भगवान नेमिनाथ की ‘अहमि...

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 10)

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बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 10 ) श्री कृष्ण द्वारा कंस का अंत मथुरा में श्री कृष्ण का जन्म होते ही उनके पिता वसुदेव और उनके ज्येष्ठ भ्राता बलभद्र (रोहिणी के पुत्र) उन्हें गुप्त रूप से गोकुल में नंद गोप के घर ले गए। मार्ग के अंधेरे में श्री कृष्ण के पुण्यप्रभाव से एक देव ने दीपक द्वारा मार्गदर्शन किया। नगर के द्वार अपने आप खुल गए और यमुना नदी का प्रवाह भी अपने आप थम गया। नदी ने दो भागों में विभाजित होकर उस पार जाने का मार्ग बना दिया। जब वसुदेव और बलभद्र श्री कृष्ण को गोकुल ले जा रहे थे, तब नंद गोप एक मृत पुत्री को लेकर मार्ग में आते हुए मिले। बलभद्र ने बाल कृष्ण को उन्हें सौंप दिया और मृत पुत्री को लेकर ऐसा प्रचारित किया कि देवकी ने मृत पुत्री को जन्म दिया है। इस प्रकार राजा कंस को श्री कृष्ण के अवतार की ख़बर भी न हुई। नन्दगाँव में नन्दगोप की पत्नी यशोदा अत्यन्त स्नेहपूर्वक श्री कृष्ण का लालन-पालन करने लगी। ज्यों-ज्यों श्री कृष्ण बड़े हो रहे थे, त्यों-त्यों मथुरा में उपद्रव भी बढ़ रहे थे। इसी से अनुमान लगा कर ज्योतिषियों ने अनुमान लगा कर राजा कंस को कहा कि ‘आपका महान शत्रु कही...