बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 19)
बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 19 ) भगवान नेमिनाथ जी का केवलज्ञान कल्याणक नेमिप्रभु ने सहस्राम्र वन में आत्मध्यान में अपने उपयोग को लगाया। तुरन्त ही उन्हें शुद्धोपयोग में सातवाँ गुणस्थान प्रगट हुआ। मात्र संज्ज्वलन के अतिरिक्त समस्त कषाय दूर हो गए हैं। मनःपर्यय ज्ञान एवं चौदहपूर्व रूप श्रुतकेवलीपना उदित हुआ है और अनेक दिव्य लब्धियाँ भी प्रकट हुई हैं। विवाह के समय बंधन से छुड़ाए गए वे पशु भी प्रभु के पीछे-पीछे वन में आकर उनके निकट ही रहने लगे। वास्तव में शान्ति किसे प्रिय नहीं होती ? हज़ारों मोक्षार्थी जीवों ने भी अपने जीवन को ज्ञान-वैराग्य में लगाया हुआ है। उस काल में गिरनार का गौरव भी इतना आश्चर्यकारी था कि वहाँ मोक्षसाधक मुनिवरों का समूह ऐसे शोभा देता था मानो ‘सिद्धों का मेला’ लगा हो। इन्द्रों ने और श्री कृष्ण-बलभद्र आदि ने भी मस्तक झुका कर बारम्बार नेमिनाथ मुनिराज की दर्शन-स्तुति की। दीक्षा के पश्चात् तीसरे दिन नेमिनाथ मुनिराज आहार के लिए जूनागढ़ नगरी में पधारे। तब श्रद्धा आदि गुणों से विभूषित राजा वरदत्त ने उन तीर्थंकर मुनिराज को शुद्ध आहारदान देकर प्रथम पारणा कराया और बाद म...