बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 17)

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 17)

भगवान नेमिनाथ का दीक्षा कल्याणक

दूल्हा नेमिकुमार संसार से विरक्त होकर रथ को मोड़ कर वन की ओर जा रहे हैं, उन्हें विवाह नहीं करना है। यह समाचार सुनते ही नगर में चारों ओर हाहाकार मच गया। महाराजा समुद्रविजय और बलभद्र आदि ने उन्हें विवाह करने के लिए तरह-तरह से समझाया, किन्तु वे अपने निर्णय में अडिग थे। श्री कृष्ण को भी अपने कृत्य पर पश्चाताप होने लगा। परन्तु संसार के पिंजरे से छूटा हुआ सिंह वैराग्य धारण करके वन की ओर चल पड़ा। वह फिर से पिंजरे में बंद होने के लिए क्यों आता?

श्री कृष्ण ने तुरन्त उन पशुओं को बंधन से मुक्त कर दिया, पर आश्चर्य!! वे सभी जीव दौड़ कर वन की ओर अपने स्थान पर जाने के बदले नेमिकुमार के निकट आकर निर्भयता से उनके चरणों में बैठ गए और उनकी वैराग्यपूर्ण शांत मुद्रा देखने लगे। ऐसा लगता था कि जैसे उनको भी वैराग्य हो गया हो और वे मृत्यु से बचाने के लिए प्रभु का उपकार मान रहे हों कि ‘हे प्रभु! जिस प्रकार आपने हमें इस समय मरण से बचाया है, उसी प्रकार सदा के लिए हमें जन्म-मरण के बंधन से छुड़ाकर हमारा उद्धार करो।’

कितना अद्भुत दृश्य था वह! चारों ओर आश्चर्य का कोलाहल और वैराग्य की शांति का वातावरण था। जब माता शिवादेवी ने जाना कि उनका पुत्र विवाह न करके वैराग्य के मार्ग पर चलने के लिए वन की ओर जा रहा है, तब उन शूरवीर माता ने धैर्यपूर्वक उस वैराग्य के प्रसंग को सहन किया। वे साधारण माता न होकर एक तीर्थंकर की जननी थी और उन्होंने 300 वर्ष तक पुत्र नेमिकुमार के साथ रह कर उनके वैराग्यमय जीवन को प्रत्यक्ष देखा था।

माता शिवादेवी ने पुत्र के वैराग्य की अनुमोदना की और सोचा कि मेरा पुत्र सांसारिक बंधन में न पड़ कर परमात्मपद की साधना हेतु जा रहा है, यह तो श्रेष्ठ प्रसंग है, आनन्द की बात है। अपने लाडले पुत्र को कुछ ही समय बाद मैं परमात्मा के रूप में देखूँगी और उसकी छत्रछाया में अपना कल्याण करूँगी।

नेमिकुमार संसार से विरक्त होकर जिनदीक्षा हेतु तैयार हुए। प्रभु के वैराग्य से स्वर्गलोक में इन्द्र का सिंहासन भी डोलने लगा। ब्रह्मस्वर्ग से ब्रह्मचारी लौकान्तिक देव भगवान की वीतरागता की अनुमोदना करने आए। इन्द्रगण ‘देवकुरु’ नामक सुन्दर पालकी लेकर आए और नेमिकुमार रथ से उतर कर उसमें विराजमान हो गए। बारात में आए हुए हज़ारों राजा-महाराजा सोच में पड़ गए कि अब हमें क्या करना है? दूल्हा बने नेमिकुमार तो संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेने वन को जा रहे हैं। उन्हें छोड़ कर अब हमें राजभोगों में फँसना क्या उचित होगा? सभी राजा विवेकवान थे। उन्होंने निर्णय किया कि अभी तो हम राजुल को ब्याहने के लिए नेमिकुमार की बारात में आए थे, अब हम भगवान की मोक्षपुरी की बारात में भी उनके साथ ही जाएंगे। हम भी प्रभु के साथ दीक्षा लेंगे।

ऐसा निश्चय करके एक हज़ार राजा भी प्रभु के साथ वनगमन हेतु तैयार हो गए।

नेमिप्रभु की मोक्षपुरी की बारात गिरनार पर्वत के सहस्राम्र वन में पहुँची। उस तपोवन के फलों से आच्छादित हज़ारों आम्रवृक्षों ने झुक-झुक कर प्रभु का स्वागत किया।

श्रावण शुक्ला षष्ठी को, अपने जन्म दिवस के दिन ही नेमिप्रभु ने दीक्षा ग्रहण की। प्रभु ने बारह वैराग्य भावनाओं के चिन्तनपूर्वक सर्व परिग्रह का परित्याग किया और अपरिग्रही दिगम्बर दीक्षा धारण की। वे दीक्षावन की एक उज्ज्वल शिला पर बैठ कर सिद्ध भगवन्तों को वन्दन करके आत्मचिन्तन में शुद्धोपयोगी होकर स्थिर हो गए।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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