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Showing posts from November, 2022

भगवान पार्श्वनाथ

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भगवान पार्श्वनाथ भगवान महावीर चौबीस तीर्थंकरों में से अंतिम तीर्थंकर थे। इनसे पहले 23 वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी हुए हैं। उनका बाल जीवन सत्य धर्म का पाठ सिखाने के लिए अनुपम उदाहरण है। तीर्थंकर उस मनुष्य को कहते हैं, जिसने इन्द्रियों और मन को जीत कर सर्वज्ञ पद पा लिया है। ज्ञान के द्वारा जो भटकते हुए जीवों को संसार रूपी महासागर से पार लगाने में सहायक हैं और तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले हैं। इस प्रकार सभी तीर्थंकर लोक का सच्चा उपकार करने वाले महान् शिक्षक थे। इनमें सबसे पहले ऋषभदेव हुए। उनके बाद लम्बे-लम्बे अंतरालों के बाद क्रमशः तेइस तीर्थंकर और हुए। उनमें से चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर थे। श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से ढाई सौ वर्ष पहले श्री पार्श्वनाथ जी निर्वाण पधारे। इनके पिता राजा विश्वसेन बनारस में राज्य करते थे। इनकी माता महिपाल नगर के राजा की पुत्री थी। उनका नाम वामादेवी था। राजकुमार पार्श्वनाथ बहुत पुण्यशाली जीव थे। वे बचपन में ही गहन ज्ञान की बातें करते थे। लोग उनके चातुर्य को देखकर दंग रह जाते थे। एक दिन राजकुमार पार्श्वनाथ वन-विहार के लिए निकले। सखा-साथी उनके साथ थे...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 17)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 17 ) भगवान पार्श्वनाथ जी का समवशरण व मोक्ष कल्याणक धरणेन्द्र व पद्मावती जिस उपसर्ग को दूर करने का प्रयत्न कर रहे थे, वह कार्य केवलज्ञान के प्रताप से स्वयं ही पूर्ण हो गया। प्रभु उपसर्ग विजेता होकर केवली बने और केवली को कभी उपसर्ग नहीं होता। भगवान के दिव्य समवशरण में जीवों के समूह भगवान की दिव्य वाणी सुनने के लिए आने लगे। यह आश्चर्यजनक घटना देखकर संवरदेव का मन भी बदलने लगा। केवली प्रभु की महिमा देख कर उसके भावों में भी श्रद्धा जागृत हो गई। उसका क्रोध एकदम शान्त हो गया और वह पश्चाताप से बारम्बार प्रभु के सामने याचना करने लगा - हे देव! मुझे क्षमा करो। मैंने अकारण ही आपके ऊपर महान् उपसर्ग किया, पर आपने किंचित मात्र भी क्रोध नहीं किया। मुझे क्षमा करो। कहाँ आपकी धन्यता और कहाँ मेरी पामरता! आपने वीतरागता से केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और परमात्मा बन गए। हे प्रभो! मेरा अपराध क्षमा करो। मैं जान गया हूँ कि क्रोध पर हमेशा क्षमा की ही विजय होती है। मैं क्षमाधर्म की महिमा को जान गया हूँ। समवशरण में भगवान का उपदेश सुन कर उस कमठ के जीव को विशुद्ध सम्यग्दर्शन ...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 15)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 15 ) भगवान पार्श्वनाथ का वैराग्य और दीक्षा कल्याणक एक बार पौष कृष्णा एकादशी के दिन पार्श्वकुमार धर्मसभा में बैठे थे और उनका जन्मदिवस मनाया जा रहा था। देश-देशान्तर के राजाओं की ओर से उत्तमोत्तम वस्तुएँ भेंट की जा रही थी। अयोध्या का राजदूत भी भेंट लेकर आया। वह विनयपूर्वक स्तुति करके कहने लगा - हे प्रभो! हमारी अयोध्या नगरी के राजा जयसेन को आपके प्रति प्रगाढ़ स्नेह है, इसलिए ये उत्तम रत्न एवं हाथी आदि वस्तुएँ आपको भेंट स्वरूप भेजी हैं। पार्श्वकुमार ने प्रसन्न दृष्टि से राजदूत की ओर देखा और अयोध्या के वैभव की बात पूछी। राजदूत ने कहा - महाराज! हमारी अयोध्या तो तीर्थंकरों की खान है। जिस पुण्यभूमि पर तीर्थंकर जन्म लेते हों, वहाँ के वैभव का तो क्या कहना ? असंख्य वर्ष पूर्व जब भगवान ऋषभदेव ने अयोध्यानगरी में अवतार लिया था, उस समय इन्द्र ने उस नगरी की रचना की थी। तत्पश्चात् भगवान अजितनाथ, अभिनन्दन नाथ, सुमतिनाथ तथा अनन्तनाथ जी तथा भरत चक्रवर्ती, भगवान रामचन्द्र आदि अनेक महान पुरुषों ने अयोध्यानगरी को पावन किया है। अयोध्यानगरी का पूर्वकाल का वर्णन सुन कर...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 14)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 14 ) सर्प युगल का उद्धार एक ओर घायल सर्प युगल तड़प रहे हैं और दूसरी ओर उनकी हिंसा करने वाला कुगुरु खड़ा है तथा उन्हीं के निकट उनका उद्धार करने वाले, जगत् को सन्मार्ग दिखाने वाले तीर्थंकर उनको वीतराग धर्म का स्वरूप समझा रहे हैं। दोनों सर्प ऐसे दया की मूर्ति पार्श्वकुमार के दर्शन करके शांति का अनुभव कर रहे हैं और उनके मुख से वीतराग धर्म का उपदेश सुन कर स्वयं को धन्य समझ रहे हैं। पार्श्वकुमार ने कहा - हे सर्पराज! भले ही इस अज्ञानी तापसी की कुल्हाड़ी से तुम्हारे शरीर कट गए हैं, परन्तु तुम क्रोध नहीं करना; क्योंकि पूर्वभव में क्रोध करने के कारण तुम्हें सर्प का भव मिला है। अब तुम क्रोधभाव त्याग कर क्षमाभाव धारण करो और पंचपरमेष्ठी भगवान की शरण लो। ऐसा कहकर पार्श्व प्रभु ने उन्हें धर्म श्रवण कराया। दोनों नाग-नागिन अत्यन्त शांतिपूर्वक भावी तीर्थंकर के दर्शन करके और उनकी वाणी सुन कर अपना कष्ट भूल गए और उपकार बुद्धि से प्रभु का मुख देखते रहे। उन सर्प के मुख से विष के बदले अमृत झरने लगा - अहा! हम जैसे विषैले जीवों को भी प्रभु ने करुणापूर्वक सच्चा धर्म समझाय...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 13)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 13 ) घायल सर्प युगल जब भगवान पार्श्वनाथ पूर्व जन्म में अग्निवेश मुनि थे, तब उनके भाई कमठ का जीव अजगर बन कर उन्हें निगल गया था और मर कर नरक में गया था। उसके बाद वह शिकारी भील बना तो उसने वज्रनाभि मुनि को बाण से छेद दिया। तत्पश्चात् वह सिंह होकर आनन्द मुनि को खा गया। वह मर कर पाँचवें नरक में गया और उसके बाद तीन सागर तक तिर्यंच पर्याय में भटकता रहा। अंत में वही जीव महिपाल नगरी में महिपाल नाम का राजा हुआ। भगवान पार्श्वनाथ की माता वामा देवी इसी महिपाल की पुत्री थी। इस प्रकार वह महिपाल भगवान पार्श्वनाथ का नाना था। महिपाल की रानी का स्वर्गवास होने के बाद वह दुःखी होकर तापसी बन गया था। उसके 700 तापस शिष्य थे। वह अज्ञानजन्य कुतप करता था। उस समय वह अपने 700 तापस शिष्यों के साथ बनारस नगरी में डेरा डाले हुए था और पंचाग्नि तप कर रहा था। उसके चारों ओर अग्नि में बड़े-बड़े लक्कड़ जल रहे थे। इतने में पार्श्वकुमार अपने मित्रों के साथ वनविहार करते हुए वहाँ आ पहुँचे। अपने नाना को कुतप करते हुए देख कर पार्श्वकुमार ने उन्हें वंदन-नमन नहीं किया। महिपाल तापस को यह दे...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 12)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 12 ) पार्श्वकुमार का विवाह से इन्कार राजकुमार पार्श्वकुमार के युवा होने पर माता-पिता ने उनसे विवाह के लिए अनुरोध किया, परन्तु पार्श्वकुमार ने विवाह के लिए अनिच्छा प्रदर्शित की। माता ने कहा - हे कुमार! मैं जानती हूँ कि तुम्हारा अवतार वैराग्य के लिए हुआ है, तुम तीर्थंकर होने वाले हो और इसी कारण मैं स्वयं को धन्य मानती हूँ; परन्तु पूर्वकाल में ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने जिस प्रकार विवाह करके अपने माता-पिता की इच्छा पूर्ण की थी, उसी प्रकार तुम भी हमारी इच्छा पूर्ण करो। तब पार्श्वकुमार गम्भीरतापूर्वक बोले - हे माता! भगवान् ऋषभदेव की बात कुछ और थी। मैं प्रत्येक विषय में उनके बराबर नहीं हूँ। उनकी आयु बहुत लम्बी थी, मेरी तो मात्र सौ वर्ष की है। मुझे तो अल्पकाल में ही संयम धारण करके अपनी आत्मसाधना पूर्ण करनी है। इसलिए मुझे सांसारिक बंधनों में पड़ना उचित नहीं है। वैरागी राजकुमार की बात सुनकर माता-पिता के नेत्रों में अश्रु छलक आए। कुछ देर तक निराशा में रह कर अंत में उन्होंने समाधान कर लिया। उन्होंने विचार किया - पार्श्वकुमार तो तीर्थंकर बनने के लिए अवतरित हुए...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 11)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 11 ) भगवान पार्श्वनाथ का जन्म कल्याणक दिन पर दिन बीतते गए और पौष कृष्णा एकादशी के शुभ दिन राजा अश्वसेन के यहाँ महारानी वामा देवी के गर्भ से बालक पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। बनारस नगरी में चारों ओर आनन्द छा गया। तीनों लोक आनन्दित हो गए। स्वर्ग में भी अपने आप दिव्य वाद्य बजने लगे। इन्द्र ने जान लिया कि भरतक्षेत्र में 23 वें तीर्थंकर का अवतार हुआ है। उसने तुरन्त इन्द्रासन से नीचे उतर कर बाल तीर्थंकर को नमस्कार किया और ऐरावत हाथी पर बैठ कर जन्मोत्सव मनाने बनारस आ पहुँचा। छोटे-से भगवान को विशाल ऐरावत हाथी पर बैठाया और भगवान की शोभायात्रा मेरुपर्वत पर आ पहुँची। क्षीर सागर के जल से 1008 कलशों द्वारा भगवान का जन्माभिषेक किया और उन्होंने प्रभु का नाम पार्श्वकुमार रखा। आकाश से दिव्य पुष्पों की वृष्टि होने लगी। इन्द्राणी ने बाल तीर्थंकर को रत्नाभूषणों से अलंकृत किया और स्वर्ग से लाए हुए वस्त्राभूषण पहनाए और रत्न का तिलक लगाया। प्रभु के जन्मोत्सव की शोभायात्रा बनारस नगरी को लौट आई और महारानी वामा देवी को उनका पुत्र सौंप कर इन्द्र-इन्द्राणी ने कहा - हे माता!...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 10)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 10 ) भगवान पार्श्वनाथ जी के पूर्वभव भील क्रूर सिंह के रूप में और इन्द्र का पार्श्वनाथ के रूप में भूमि पर अवतरण कमठ का जीव नरक की यातना भोग कर वहाँ की आयु समाप्त करके उसी वन में क्रूर सिंह बन कर उत्पन्न हुआ। आनन्दमुनि ध्यान में मग्न थे लेकिन उन्हें देखते ही उस कमठ के जीव ने सिंह रूप में क्रोध से गर्जना की। उसकी भीषण गर्जना से सारा वन काँप उठा। वन के पशु-पक्षी भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। वह ध्यानस्थ मुनि की ओर दौड़ा और छलांग मार कर उनका गला दबोच लिया। मुनिराज किंचित मात्र भी भयभीत नहीं हुए। वे निर्भय रूप से अपने ध्यान में मग्न थे। सिंह पंजों से उनके शरीर को विदीर्ण करने लगा। मुनिराज ने धर्म आराधना सहित प्राणों का उत्सर्ग किया और आनत स्वर्ग में इन्द्र हुए और वह सिंह क्रूर परिणामों से मर कर पुनः नरक में जा गिरा। आनन्द मुनि स्वर्ग में और सिंह नरक में - ऊर्ध्व लोक के 16 स्वर्गों में से 13 वाँ स्वर्ग है आनत स्वर्ग! वहाँ अनेक कल्प-वृक्ष और चिंतामणि रत्न होते हैं, जिनसे माँगते ही सब इच्छित वस्तु मिल जाती है, परन्तु वीतराग धर्म ऐसा कल्प-वृक्ष है कि ...

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 9)

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तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 9 ) भगवान पार्श्वनाथ जी के पूर्वभव अगला भव अहमिन्द्र से राजा आनंद की पर्याय में वज्रनाभि मुनिराज मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए। उन्होंने 27 सागर की आयु प्राप्त की और क्रूर भील का जीव सातवें नरक में गया तथा उसने भी 27 सागर की आयु प्राप्त की। स्वर्गलोक का आश्चर्यजनक वैभव देख कर वे अहमिन्द्र विचार में पड़ गए। उनको अवधिज्ञान प्रगट हुआ और उन्होंने अपना पूर्वभव जान लिया - अहो! वह मुनिदशा धन्य थी। मेरा किंचित राग शेष रह गया था जो मेरा स्वर्गलोक में अवतरण हुआ है। यहाँ भी जैन धर्म की उपासना ही मेरा कर्तव्य है। ऐसा विचार कर उन्होंने अत्यन्त भक्तिभाव से देवलोक के जिनालय में विराजमान शाश्वत रत्नमयी जिन प्रतिमा की पूजा की। वहाँ असंख्यात् सम्यग्दृष्टि देव थे जो आगामी भव में तीर्थंकर होने वाले थे और मोक्ष प्राप्त करने वाले थे। ऐसे धर्मात्मा साधर्मी देवों के साथ आनन्दपूर्वक वे धर्म चर्चा करते और मोक्ष प्राप्त करने की भावना भाते। इधर कमठ के जीव ने नरक में 27 सागर तक अपार वेदनाएँ सहन की। भील की पर्याय में मुनि का घात करने के कारण वह मरकर नरक में जा गिरा।...