तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 9)

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 9)

भगवान पार्श्वनाथ जी के पूर्वभव

अगला भव अहमिन्द्र से राजा आनंद की पर्याय में

वज्रनाभि मुनिराज मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए। उन्होंने 27 सागर की आयु प्राप्त की और क्रूर भील का जीव सातवें नरक में गया तथा उसने भी 27 सागर की आयु प्राप्त की।

स्वर्गलोक का आश्चर्यजनक वैभव देख कर वे अहमिन्द्र विचार में पड़ गए। उनको अवधिज्ञान प्रगट हुआ और उन्होंने अपना पूर्वभव जान लिया - अहो! वह मुनिदशा धन्य थी। मेरा किंचित राग शेष रह गया था जो मेरा स्वर्गलोक में अवतरण हुआ है। यहाँ भी जैन धर्म की उपासना ही मेरा कर्तव्य है। ऐसा विचार कर उन्होंने अत्यन्त भक्तिभाव से देवलोक के जिनालय में विराजमान शाश्वत रत्नमयी जिन प्रतिमा की पूजा की। वहाँ असंख्यात् सम्यग्दृष्टि देव थे जो आगामी भव में तीर्थंकर होने वाले थे और मोक्ष प्राप्त करने वाले थे। ऐसे धर्मात्मा साधर्मी देवों के साथ आनन्दपूर्वक वे धर्म चर्चा करते और मोक्ष प्राप्त करने की भावना भाते।

इधर कमठ के जीव ने नरक में 27 सागर तक अपार वेदनाएँ सहन की। भील की पर्याय में मुनि का घात करने के कारण वह मरकर नरक में जा गिरा। नरक की भूमि पर गिरते ही वह उछल पड़ा और सोचने लगा कि मैं यहाँ कहाँ आ गया हूँ? अब मैं कहाँ जाऊँ? किसकी शरण लूँ? वह अत्यन्त दुःख से विलाप करता है, पर वहाँ उसका विलाप कौन सुनने वाला था? दूसरे नारकी घातक बन कर उसे मारते थे।

जो धर्मात्मा की विराधना करके मात्र पाप का सेवन करता है, उसकी ऐसी ही दशा होती है। हिंसा आदि में सुख मानने वाले जीव, मेरु पर्वत के समान दुःख को ही आमन्त्रित करते हैं।

इस प्रकार भील का जीव नरक में दुःख भोगता रहा और वज्रनाभि मुनिराज का जीव स्वर्ग के सुख भोगता हुआ धर्मध्यान करता रहा।

वज्रनाभि मुनिराज का जीव स्वर्ग की आयु पूर्ण करके अयोध्या नगरी में राजा वज्रबाहु और रानी प्रभावती के यहाँ राजकुमार के रूप में अवतरित हुआ, जिसका नाम था - आनन्दकुमार। आनन्दकुमार बालपन से ही आत्मानन्द का अनुभव करते थे और दूसरों को भी आनन्द देते थे। बड़े होने पर वे महामण्डलिक राजा बने। उनके अधिकार में आठ हज़ार राजा थे। राज्य के सुख-वैभव में भी वे धर्म को सदा याद रखते थे। उनके शासनकाल में अयोध्या की प्रजा सर्व प्रकार से सुखी थी। वे धर्मात्माओं का सदा सम्मान करते थे और विद्वानों का आदर करते थे।

फाल्गुन मास में वसन्त ऋतु में सभी उद्यान सुन्दर फूलों से महकने लगे और साथ ही धर्मात्माओं के मन में भी श्रद्धा-ज्ञान और आनन्द के पुष्प खिल उठे थे। महाराजा आनन्द राजसभा में बैठ कर धर्म चर्चा द्वारा सबको आनन्दित कर रहे थे। इतने में मंत्री ने आकर कहा कि हे महाराज! कल से अष्टाह्निका का पर्व प्रारम्भ हो रहा है। इसलिए आठ दिन तक जिन मंदिर में नन्दीश्वर-पूजा का आयोजन किया है, आप भी इस उत्सव में पधार कर नन्दीश्वर-जिनालयों की पूजा करें।

मंत्री की बात सुनकर राजा अति आनन्दित हुए और बोले - अहा! वीतराग जिनेश्वर की पूजा बहुत भाग्य से मिलती है। राज्य भर में धूमधाम से उत्सव मनाओ, पूजा रचाओ, धर्म चर्चा करो, दान दो और जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन करके जैन धर्म की ख़ूब प्रभावना करो।

अष्टाह्निका पर्व का मंगल-उत्सव प्रारम्भ हो गया। सबने पूजा, धर्म चर्चा, दान, जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन करके खूब धर्म प्रभावना की।

उन्हीं दिनों ‘विपुलमति’ नाम के एक मुनिराज जिन मंदिर में आए। इससे सारे नगर में हर्ष छा गया। राजा एवं प्रजा सभी ने भक्तिभाव से मुनिराज के दर्शन किए। राजा ने भक्ति भाव से मुनिराज की वन्दना की और आहार दान दिया।

वीतरागी मुनिराज ने कहा - हे भव्य जीवों! यह आत्मा स्वयं ही ज्ञान और सुखस्वरूप है। इसे पहचानो। सम्पूर्ण जगत में आत्मानुभव के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं सुख दिखाई नहीं दिया। आत्मा का सुख बाहर खोजने से नहीं मिलेगा। उसके लिए अपने भीतर झाँकना पड़ेगा। पूजा-व्रत आदि के शुभराग से जीवों को पुण्यबंध होता है और मोह रहित वीतरागता से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये मूक जिन-प्रतिमाएँ यही उपदेश देती हैं कि तुम भी संकल्प-विकल्प छोड़ कर अपने स्वरूप में स्थिर हो जाओ। प्रतिदिन जिनेन्द्र देव के दर्शन करके जिन भावना भाना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है।

मुनिराज के मुख से जिनदर्शन की महिमा सुनकर सबको बहुत हर्ष हुआ और सभी आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिंतन करने लगे।

राजा ने अयोध्या में सूर्यविमान जैसा एक सुन्दर विमान बनवाया और उस हीरा-माणिक-रत्नजड़ित विमान में सुन्दर जिन प्रतिमा की स्थापना की। वे प्रतिदिन प्रातःकाल और सांयकाल उसकी पूजा करने लगे। राजा तो सूर्यविमान में विराजमान जिन प्रतिमा को नमस्कार करते थे, परन्तु बाह्यदृष्टि जीव निश्चय को जाने बिना व्यवहार को पूजने लगते हैं, तदनुसार अन्य मतावलम्बी लोग जिनबिम्ब के बदले सूर्यबिम्ब को ही पूजने लगे।

राजा को अपनी धर्माराधना पर पूरा विश्वास था कि मैं भी एक दिन जिनसदृश आत्मा का चिन्तन करके जिन हो जाऊँगा। ऐसी भावना सहित धर्माराधना करते हुए कई वर्ष बीत गए। एक दिन राजा ने अपने सिर में श्वेत बाल देखा और सोचा कि यह सफेद बाल मृत्यु का संदेशा लेकर आया है। हे जीव! अब तुरन्त चारित्रदशा को धारण करके आत्मकल्याण कर। राजा ने तुरन्त वैराग्य धारण करके सागरदत्त मुनि के समीप जाकर मुनि दीक्षा ले ली।

उन्हें 12 अंग का ज्ञान हुआ और अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हुई। उनका लक्ष्य तो केवल चैतन्य ऋद्धि प्राप्त करना था। ऐसे आनन्द मुनिराज ने दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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