बारह भावना (4 - एकत्व भावना)

मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली

मंगतराय जी कृत बारह भावना

(पंडित सौरभ जी शास्त्री, इन्दौर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर)

4. एकत्व भावना

जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख-दुख का भोगी।

और किसी का क्या, इक दिन यह देह जुदी होगी।

यह चेतन अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरण करता है। एक विशेष बात की ओर भी हमारा ध्यान जाना चाहिए। हम कह सकते हैं कि हम जन्म के समय अकेले नहीं आए, हमारा शरीर भी तो हमारे साथ आया था। लेकिन सोचो कि क्या वह हमारे साथ जाएगा?

नहीं!! वह तो यहीं पर छूट जाएगा।

क्या यह शरीर सुख व दुःख का अनुभव करता है?

नहीं!!

शरीर तो जड़ है। शरीर के माध्यम से चेतन ही सुख व दुःख का अनुभव करता है। शरीर एक माध्यम है जिससे हमारे सभी काम सिद्ध होते हैं। धर्म, अर्थ, काम आदि सभी कार्य हमारे शरीर के माध्यम से ही किए जा सकते हैं। जो शरीर सभी कार्यों में हमारा सहायक बनता है, वही एक दिन हमारा साथ छोड़ देता है। मृत्यु के बाद वह भी हमारे साथ जाने वाला नहीं।

हम पर-पदार्थों में अपनेपन की भावना रखते हैं उनसे एकत्व भाव रखते हैं लेकिन जब यह शरीर ही हमारा अपना नहीं है जो हमारे जन्म से लेकर मृत्यु के अंतिम क्षण तक हमारे निकटस्थ रहता है तो पर-पदार्थ हमारे अपने कैसे हो सकते हैं?

एकत्व भावना को पुष्ट करने के लिए जीवन की वास्तविकता बताई गई है कि हे जीव! तू अकेला ही आया था और अकेला ही इस दुनिया से जाएगा।

कमला चलत न पैंड जाय, मरघट तक परिवारा।

अपने अपने सुख को रोवै, पिता पुत्र दारा। (10)

कमला अर्थात् हमारी पत्नी जिसने हमारे साथ जन्म-जन्म तक साथ रहने का वचन दिया था, वह भी हमारी मृत्यु के बाद हमारे मृत शरीर के साथ घर की दहलीज (पैंड) तक ही जाएगी। उसके बाद वह भी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार साथ छोड़ देती है और परिवारजन श्मशान तक अंतिम संस्कार करने के लिए साथ जाते हैं। अब तो वास्तविकता को समझो!!!

उनका रोना-धोना हमारे जाने से होने वाली क्षति को याद करके होता है, हमारे लिए नहीं। सब अपने-अपने स्वार्थ के लिए रोते हुए दिखाई देते हैं। यदि एक व्यक्ति जीवन भर परिश्रम करके परिवार के लिए बहुत सारा धन कमा कर रख जाता है तो उसके जाने का दुःख किसी को नहीं होगा। कुछ दिनों के बाद सब कुछ सामान्य रूप से चलने लगेगा।

इसके विपरीत कोई अकेला धन कमाने वाला है। रोज़ कमाता है और रोज़ खर्च हो जाता है। उसके पास परिवार के भरण-पोषण के लिए कोई जमापूंजी नहीं है। उसका अचानक मरण हो जाए तो परिवार उसके द्वारा धन न आने के कारण होने वाली समस्याओं से भयभीत होकर उसको याद करेगा। वे धन के लिए रोएंगे न कि उसके जाने के कारण। पिता, पुत्र, पत्नी (दारा) आदि जो उस जीव पर जितने अधिक आश्रित होंगे, उन्हें उतना ही अधिक दुःख होगा।

ज्यों मेले में पंथी जन मिल, नेह फिरैं धरते।

ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा, पंछी आ करते।

संसार में एक परिवार में रहने वाले जीव उसी प्रकार एक स्थान पर मिलते हैं जिस प्रकार किसी मेले में अलग-अलग स्थानों से आने वाले यात्रीगण मिलते हैं। शुरू के 2-4 दिन तो परिचय पाने में बीत जाते हैं। फिर उनसे आचार-विचार मिलने लगते हैं तो आपस में स्नेह पैदा हो जाता है। तब ऐसा लगता है कि जैसे हम इन्हें वर्षों से जानते हैं और इनके बिना हमारा काम ही नहीं चल सकता। मेला समाप्त होने पर जब अपने-अपने घरों की ओर लौटने का समय आता है तो दुःख होता है। वह दुःख 2-4 दिन ही रहता है, फिर सब पहले की तरह अपने काम में लग जाते हैं। संसार भी एक मेले के समान ही है। लोग एक-दूसरे से मिलते हैं और फिर अपने-अपने स्थान पर लौट जाते हैं।

परिवार एक वृक्ष के समान है जहाँ रात को पक्षी आराम करने के लिए अलग-अलग दिशाओं से आकर ठहरते हैं और प्रातःकाल होते ही नए स्थान की खोज में दाना-पानी लेने के लिए उड़ जाते हैं। फिर उस वृक्ष पर कोई पंछी दोबारा लौट कर नहीं आता।

कोस कोई दो कोस कोई उड़, फिर थक-थक हारै।

जाय अकेला हंस, संग में कोई न पर मारै। (11)

उड़ान भरते समय कोई पंछी 1-2 कोस तक साथ-साथ उड़ भी जाए तो भी उनमें से कुछ थक कर वहीं विश्राम करने के लिए बैठ जाते हैं और बाकी अपनी-अपनी दिशा में उड़ कर चले जाते हैं। केवल हंस ही एक ऐसा पक्षी है जो कभी झुंड बना कर नहीं उड़ता। वह सदा अकेला ही उड़ता है। इसीलिए आत्मा को हंस की उपमा दी जाती है क्योंकि आत्मा भी अकेले ही पृथ्वी पर जन्म लेती है और अकेले ही यहाँ से दूसरी योनि में जन्म लेने के लिए चली जाती है और फिर कभी मुड़कर नहीं देखती कि मेरे बाद मेरे परिवार का क्या हाल है। वे अपना जीवन-यापन किस प्रकार कर रहे हैं?

यह है ‘एकत्व भावना’।

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