बारह भावना (5 - भिन्न भावना)
मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली
मंगतराय जी कृत बारह भावना
(पंडित सौरभ जी शास्त्री, इन्दौर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर)
5. भिन्न भावना
मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या जल चमके।
मृग-चेतन नित भ्रम में उठ-उठ, दौड़ैं थक-थक के।
कल्पना करो कि एक मृग प्यास से व्याकुल होकर मरुस्थल में पानी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है। दूर-दूर तक निगाहें दौड़ाई लेकिन कहीं पानी दिखाई नहीं दे रहा। अचानक उसने देखा कि कुछ पानी की लहरें-सी दिखाई देने लगी। सूर्य की धूप में चमकते हुए रेत के कण उसे पानी की तरह दिखाई दे रहे थे और हवा में गिरती उठती रेत की लहरें पानी की लहरों की तरह दिखाई दे रहीं थी। वह भागा पानी की तलाश में लेकिन जैसे ही वह उनके पास पहुँचता, वैसे ही वह पानी की चमक आगे की ओर बढ़ जाती और उस मृग की प्यास कभी नहीं बुझ पाती और वह प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाता है।
वह मृग कोई और नहीं, हम ही हैं। हमारा चेतन रूपी मृग संसार के मरुस्थल में मोह रूपी रेत में मिथ्या जल का आभास कर रहा है। वह सोच रहा है कि यह वास्तव में जल ही है जिससे मेरी प्यास बुझ सकती है। लेकिन क्या आज तक किसी की मोह की प्यास खत्म हो पाई है।
जीव पैदा होते ही सबसे पहले अपने शरीर से मोह करता है क्योंकि वह तो जीव के रहने का मकान है। उसकी रक्षा करना उसका कर्त्तव्य भी है। फिर उसे अपनी माँ दिखाई देती है जो उसके शरीर का पालन-पोषण कर रही है। उससे मोह उत्पन्न हो जाता है। पिता उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं तो उनसे मोह करने लगता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उसके मोह का दायरा बढ़ता जाता है। घर-सामान, कपड़े-ज़ेवर, धन-दौलत; सब उसे अपने लगने लगते हैं और वह चेतन की परवाह छोड़ कर बाहरी वस्तुओं के मोह में पड़ जाता है। ऐसे संसार रूपी मरुस्थल में दौड़ते-दौड़ते जीव थक जाता है पर मोह-भाव को समाप्त नहीं कर पाता।
जल नहिं पावै, प्राण गमावै, भटक-भटक मरता।
वस्तु पराई मानै अपनी, भेद नहीं करता। (12)
क्या उसकी यह प्यास कभी बुझ पाती है? वह तो पानी की तलाश में भटक-भटक कर अपने प्राण गँवा देता है लेकिन उसे पानी कहीं नहीं मिलता।
यह मृग रूपी चेतन मोह रूपी मरुस्थल में पर-पदार्थ के मिथ्या जल से अपनी प्यास बुझाना चाहता है लेकिन ये सांसारिक पदार्थ ‘पर’ हैं अपने नहीं हैं; यह भेद करना उसे नहीं आता।
ये 12 भावनाएं न केवल संसार से वैराग्य की भावना उत्पन्न करती हैं अपितु उनसे मुक्ति का मार्ग भी बताती हैं। माता-पिता, घर-मकान, धन-सम्पत्ति सब पराए हैं क्योंकि ये सब उपयोग के योग्य हैं, मोह के योग्य नहीं हैं।
अपने और पराये में भेद करना सीखो। स्वयं को भूलकर पराये के मोह में मत पड़ो।
तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी।
मिलै अनादि यतनतैं बिछुड़ै, ज्यों पय अरु पानी।
हे चेतन! तुझे अपनी देह को भी केवल धर्म-ध्यान का साधन बनाना है, इसके मोह में पड़कर पाप-कर्म में प्रवृत्त नहीं होना। यह देह तो अचेतन है जिसका स्वभाव ही गलन और क्षरण का है। तेरा जीवत्व स्वभाव है, जिसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति के गुण हैं।
तुझे कितने प्रयत्नों के बाद यह मनुष्य जन्म मिला है। यह सोते-सोते या बैठे-बैठे नहीं मिला। न जाने कितने पुरुषार्थ के बाद यह मनुष्य भव मिला है, इसे व्यर्थ में न जाने दो। तुम्हारा और इस देह का संयोग तो दूध और पानी के समान है। दूध में पानी मिला देने पर पानी भी दूध के समान दिखाई देने लगता है पर वास्तव में जैसे ही वह पानी मिला हुआ दूध तप की अग्नि में तपेगा तो पानी शीघ्र ही भाप बन कर उड़ जाएगा और रह जाएगा केवल शुद्ध दूध। इसी प्रकार आत्मा दूध के समान है और देह पानी के समान इसमें एकाकार हो गया है। देह को तपस्या में लगाने से कर्म आत्मा से विलग हो जाएंगे और शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होगी।
रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना।
जौलों पौरुष थकै न तौलों, उद्यम सां चरना। (13)
इस भेद का ज्ञान करो। ये पर-पदार्थ सब जड़ हैं और तू चेतन है। तेरा रूप इन सबसे अलग है। जब तक अपनी मंज़िल पर न पहुँच जाओ, तब तक पुरुषार्थ करते रहो। बीच में ही थककर न बैठ जाओ। परिश्रम से शुद्ध आचरण में अपनी प्रवृत्ति लगाए रखो।
ये सब पर-पदार्थ एक दिन तुम्हें छोड़ कर चले जाएंगे। तुम अपने स्वरूप को पहचानो कि मैं अनादि निधन हूँ। मेरा अनादि काल से चेतन स्वरूप था और अनन्त काल तक वैसा ही रहेगा।
मोह माया छोडना जरुरी है
ReplyDeleteहमारे दुख का सबसे बड़ा कारण है, हमारी अज्ञानता। जोड़ने वाली चीज को छोड़ रहे हैं और छोड़ने वाली चीज का ज्ञान नहीं है।
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