बारह भावना (6 - अशुचि भावना)
मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली
मंगतराय जी कृत बारह भावना
(पंडित सौरभ जी शास्त्री, इन्दौर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर)
6. अशुचि भावना
तू नित पोखे, यह सूखे, ज्यों धोवै त्यों मैली।
निशदिन करै उपाय देह का, रोग-दशा फैली।
जिस देह के प्रति हम इतने आसक्त रहते हैं, वास्तव में उसका स्वभाव मलिनता ही है। दसलक्षण धर्म की पूजन में इसका वास्तविक स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि यदि मल से भरे हुए घड़े पर सोने की परत भी चढ़ा दो तो वह समुद्र के सारे पानी से नहला देने के बाद भी पवित्र नहीं हो सकता क्योंकि अपवित्रता उसका स्वभाव बन चुका है।
हमारे शरीर की अपवित्रता को हमारी त्वचा के लेप ने ढक रखा है। हम शरीर का पोषण करते रहते हैं फिर भी यह प्रतिदिन सूखता जाता है। पौष्टिक भोजन खिलाने पर भी वृद्धावस्था इस पर अपना अधिकार जमा लेती है और यह कमज़ोर होता चला जाता है।
वास्तव में शरीर और दुर्जन का एक-सा स्वभाव होता है। इन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। ये अपने दुष्टता और विश्वासघात के स्वभाव को कभी नहीं छोड़ते।
दुर्जन का कितना भी भला करो, अंत में वह धोखा देकर ही जाएगा। इसी प्रकार शरीर को चाहे कितने भी स्वादिष्ट पकवान खिलाओ, अंत में यह हमारा साथ छोड़ने वाला ही है।
शरीर को कितना भी नहलाओ, तुरंत इसमें से पसीना और गंदगी बहने लगती है और यह फिर से मैला हो जाता है। व्यायाम से और दवाइयों आदि से कितना भी स्वस्थ रखने की कोशिश करो, कोई-न-कोई रोग लगा ही रहता है।
‘अशुचि भावना’ में शरीर के प्रति द्वेष या घृणा करने के लिए नहीं कहा गया अपितु इसके प्रति व्यर्थ की मोह-भावना को कम करने के लिए इसका वास्तविक स्वरूप बताया गया है।
मात पिता रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी।
मांस हाड़ नश लहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी। (14)
हमारी देह माता-पिता के रज और वीर्य से मिलकर बनी है। यह देह केवल मांस, हड्डी और रक्त का पुतला है। इसका एक-एक पोर लाखों व्याधियों का घर है।
एक रोग ठीक होता है तो दूसरा रोग खड़ा हो जाता है।
इतना ही नहीं, पूजन में तो क्षुधा को भी रोग की संज्ञा दी गई है। एक बार भरपेट खिला देने के 1-2 घंटे के बाद यह फिर से भोजन मांगने लगता है। शरीर की तृप्ति भले ही हो जाए पर मन इसको तृप्ति का अनुभव करने ही नहीं देता। इन्हीं सब अतृप्त भावनाओं की व्याधि से हमारा शरीर घिरा रहता है।
काना पौंडा पड़ा हाथ यह, चूसे तो रोवै।
फलै अनंत जु, धर्म ध्यान की भूमि विषै बोवै।
इस जीवात्मा के हाथ तो यह काना पौंडा पड़ गया हैं जिसमें कोई रस नहीं है। इसे चूसने वाला भी अफसोस ही करता है।
जानते हो काना पौंडा क्या होता है?
पौंडा कहते हैं गन्ने को, जिसका रस निकाल कर पीने के काम आता है। काना पौंडा गन्ने का वह ऊपरी भाग है जिसमें रस नहीं होता लेकिन यदि उसे जमीन में बो दिया जाए तो यह बीज का काम करता है और गन्ने की नई फसल तैयार कर सकता है।
इस देह की तुलना उस काना पौंडा के साथ की गई है जिससे रस तो प्राप्त नहीं होता लेकिन यदि उसे धर्म-ध्यान की भूमि में बो दिया जाए तो वह पुण्य-कर्म की उन्नत फसल दे सकता है।
तात्पर्य यह है कि इस अपवित्र देह के माध्यम से धर्म-ध्यान किया जाए तो पुण्य-कर्म संचित किए जा सकते हैं।
केसर चंदन पुष्प सुगंधित, वस्तु देख सारी।
देह परस तैं होय अपावन, निशदिन मल जारी। (15)
शरीर पर चाहे कितना भी केसर-चंदन का लेप लगा लो, सुगन्धित पदार्थ छिड़क लो, फिर भी यह पवित्र नहीं हो सकता बल्कि वह सुगन्धित पदार्थ भी इसका स्पर्श (परस तैं) पाते ही अपावन हो जाता है। शरीर के 9 द्वारों से दिन-रात मल ही झरता रहता है।
देह को अपवित्र समझ कर इसका निरादर करने की अपेक्षा इसके माध्यम से पुण्य का उपार्जन करना चाहिए।
बहुत अच्छी व्याख्या की है l 👍👍👍
ReplyDeleteधनपाल जैन परतापुर
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