धर्म के चार सोपान

धर्म के चार सोपान

केवलज्ञानी भगवान जिनेन्द्र द्वारा बताई गई वाणी को ‘जिनवाणी’ कहा जाता है। इस वाणी में धर्म के चार सोपान बताए गए हैं -

1. प्रथमानुयोगः इस अनुयोग में महापुरुषों के जीवन के उदाहरणों द्वारा धर्म की प्रभावना की जाती है।

2. चरणानुयोगः इस अनुयोग में प्रमाद का त्याग करके धर्म-मार्ग पर चरण बढ़ाने की प्रेरणा दी गई है।

3. करणानुयोगः इस अनुयोग में कर्म व उनके फल का वर्णन है।

4. द्रव्यानुयोगः इस अनुयोग में आत्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन किया गया है।

आइए इन अनुयोगों के विषय में एक आख्यान के माध्यम से सरल शब्दों में जानकारी प्राप्त करते हैं।

एक बार माँ (जिनवाणी माँ) अपने बच्चे (श्रावक) की अंगुली पकड़ कर मंदिर की ओर ले जा रही थी। अब बच्चे में तो बच्चे जैसी ही प्रवृत्ति होती है। उसका उद्देश्य तो मंदिर जाकर भगवान के दर्शन करने का था पर रास्ते में आने वाले प्रलोभन उसे अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। कभी वह खिलौनों की दुकान पर ठिठक जाता और कभी मिठाइयों की दुकान उसके मन को ललचाने लगती।

माँ के हाथ से उसकी अंगुली की पकड़ ढीली हो जाती और वह इधर-उधर देखता रहता। रास्ते में एक बड़ा-सा पत्थर पड़ा था। बच्चे की नज़र उस पर नहीं थी। वह तो अपनी मस्ती में चल रहा था। तभी अचानक बच्चा उस पत्थर से टकराया और उसे चोट लग गई।

बस! फिर तो उसने रोना शुरू कर दिया। बीच बाज़ार में तमाशा-सा खड़ा हो गया। उसे चुप कराने के लिए सबसे पहले माँ ने प्रथमानुयोग का सहारा लिया और उसे दीदी का उदाहरण दे कर समझाने लगी कि तू क्यों रो रहा है? देख, कल तेरी दीदी को भी तो चोट लग गई थी। वह तो इतना नहीं रो रही थी। उसने भी तो चोट का दर्द शांत भाव से सहन किया था। फिर तुम भी तो सहन कर सकते हो।

इस प्रकार प्रथमानुयोग में उदाहरणों के माध्यम से हमें भी समझाया जाता है कि तुम इस समय जिन कष्टों का अनुभव कर रहे हो, ऐसे कष्ट तो तीर्थंकरों व महापुरुषों, संत-महात्माओं को भी अपने जीवन मे भोगने पड़ते हैं। भगवान पार्श्वनाथ का प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है। वे अपनी राह में आने वाली ठोकरों से घबराकर वहीं रोने नहीं बैठ गए अपितु दृढ़ता से उनका मुकाबला करते हुए आगे ही आगे बढ़ते रहे। साहस के साथ पुनः उठ खड़े हुए और अंत में महानिर्वाण पद को प्राप्त हुए।

माँ के समझाने पर भी बच्चा तो चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब माँ (जिनवाणी) उसे धमकाते हुए घुड़की देती है कि यह सब तेरी ही गलती से हुआ है। जब देख-भाल कर कदम नहीं रखेगा तो चोट तो लगेगी ही! जीवन में हर कदम संभल कर ही रखना चाहिए।

यह चरणानुयोग है। यदि तू अपनी मंज़िल को ही अपना लक्ष्य बना कर, संभल कर, सामने देख कर अपने चरण बढ़ाता तो इस प्रकार ठोकर खाने से बच सकता था, पर तुझमें तो आलस्य और प्रमाद ने डेरा डाल रखा है। मंज़िल की ओर से ध्यान हटा कर रास्ते में आने वाले खेल-तमाशों में ही मन लगा लिया। इसीलिए तो सामने पड़ा हुआ पत्थर दिखाई नहीं दिया। ठोकर तो लगनी ही थी।

ऐसी घटनाएं मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन घटती रहती हैं और मनुष्य दुःखी होता रहता है।

जब बच्चा डाँटने पर भी चुप नहीं होता तो माँ (जिनवाणी) उसके द्वारा किए गए पिछले कर्मों की याद दिलाती है कि कल तूने भी तो दीदी को तंग किया था न! तू उसे दुःखी कर रहा था तो आज तुझे भी दुःख उठाना पड़ा! उसी का फल तो तुझे मिल रहा है।

माँ सोच रही थी कि इस प्रकार समझाने से शायद इसे अपनी गलती का अहसास हो जाए और यह रोना बंद कर दे। इससे दो लाभ होंगे। एक तो यह चुपचाप मंदिर की ओर चलने लगेगा और दूसरा लाभ यह होगा कि दोबारा किसी से झगड़ा करते समय या उसे दुःख देते समय एक बार तो सोचेगा कि बुरे काम का बुरा ही फल मिलता है। कर्म और उसके फल को बताने वाला करणानुयोग है।

बच्चा माँ की बातों को ध्यान से सुनने लगा और रोने की आवाज़ धीमी होकर सिसकी में बदलने लगी। माँ (जिनवाणी) ने उसे पुचकारते हुए कहा कि तू तो मेरा राजा बेटा है न! अच्छे बच्चे कभी रोते हैं क्या? वह देख! मंदिर भी आ गया और तेरा दर्द भी चला गया।

इस प्रकार माँ के प्यार भरे बोल सुन कर बच्चा बिल्कुल चुप हो गया। तब माँ ने उसे उसके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराया। इसे ही द्रव्यानुयोग कहते हैं।

माँ ने बताया कि तेरी आत्मा का स्वभाव है - सदा प्रसन्न रहना, अपना व पर का कल्याण करना, अच्छे कार्यों में संलग्न रहना और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सदैव अग्रसर रहना।

जिनवाणी माता प्रत्येक मनुष्य को समझा कर, डाँट कर, प्यार से सही राह पर चलने की प्रेरणा देती है।

जिनवाणी माता की मन, वचन, काया से जय हो, जय हो, जय हो!!!

प्रवचनः पूज्य आर्यिका 105 दृढ़मति माता जी

चातुर्मास 1995, हिसार

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