मंत्र-जाप में पूर्ण आस्था व श्रद्धा (1)
मंत्र-जाप में पूर्ण आस्था व श्रद्धा (1)
आज के प्रवचन का मुख्य उद्देश्य है कि हम जिस मंत्र का जाप करते हैं, उसमें हमारी पूर्ण आस्था व श्रद्धा होनी चाहिए। पहले मनके से लेकर 108वें मनके तक हमें उसी आस्था को बनाए रखना है।
मंत्र-जाप का उद्देश्य है, अपनी आत्म-ज्योति को प्रज्ज्वलित करना। यदि हमारी आत्म-ज्योति के दीपक में आस्था का तेल व श्रद्धा की बाती नहीं होगी तो वह प्रकाशमान होकर आत्मांधकार को मिटाने में सक्षम नहीं हो पाएगा।
जैसे एक बुझा हुआ दीपक अंधकार को नहीं मिटा सकता, वैसे ही आस्था व श्रद्धा के अभाव में किया गया मंत्र-जाप हमारी आत्मा के अंधकार को समाप्त नहीं कर सकेगा।
हम ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें मंत्र में पू्र्ण आस्था रखनी चाहिए।
यदि कभी हमने अपने इष्ट वीतरागी देव और णमोकार मंत्र के प्रति आस्था खो दी तो हम सौधर्म चक्रवर्ती सम्राट के समान भव सागर में डूब सकते हैं।
आपने सौधर्म चक्रवर्ती सम्राट का नाम तो सुना ही होगा।
एक बार उनकी पाकशाला में मेवा व सुगंध से युक्त खीर पकाई गई। रसोइए ने बहुत मनोयोग से राजा के लिए खीर बनाई थी। राजा को प्रसन्न करने के लिए उसने तुरन्त थाली में खीर परोसी और राजा के सम्मुख प्रस्तुत की।
राजा को उसकी सुगंध ने इतना आकर्षित किया कि वह तुरन्त उसका स्वाद लेने के लिए आतुर हो गया। सम्राट उसके आकर्षण में इतना अधिक बंध चुका था कि वह अपने मन को वश में नहीं रख सका और शीघ्रता से चम्मच उठा कर थाली के बीच में से खीर ले कर अपनी जिह्वा पर रखने का प्रयत्न किया।
लेकिन खीर बहुत गर्म थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उस स्वादिष्ट खीर ने उसकी जीभ को जला दिया। पीड़ा के कारण राजा अत्यन्त क्रोधित हो गया। वह रसोइए को लेकर रसोईघर में गया और परिणाम का विचार किए बिना वह गर्म खीर से भरा बर्तन रसोइए के सिर पर उड़ेल दिया।
परिणाम तो वही हुआ जिसकी आशंका थी। रसोइए ने तत्काल प्राण त्याग दिए। उस के मन में राजा को स्वादिष्ट खीर खिलाने के शुभ परिणाम थे। अतः शुभ परिणामों के फलस्वरूप स्वर्ग में देव बन कर उत्पन्न हुआ।
देव योनि में अवधि ज्ञान के द्वारा उसने जान लिया कि मेरी मृत्यु का कारण कौन था। उसको निर्दोष होते हुए भी दण्ड का भागी बनना पड़ा था। अतः उसने राजा को सबक सिखाने का विचार किया।
वह रूप बदल कर राजा के दरबार में आया। उसने राजा को एक स्वादिष्ट आम का फल भेंट किया। राजा को वह फल बहुत स्वादिष्ट व सुगंध से युक्त लगा। उसका मन बहुत प्रसन्न हुआ। देव भी प्रतिदिन राजा को एक आम भेंट करने लगा।
इस प्रकार कुछ समय बीतने के पश्चात् एक दिन राजा ने वह पेड़ देखने की इच्छा प्रगट की, जिस पर वह स्वादिष्ट फल लगता था। देव ने कहा कि उसे देखने के लिए तो समुद्र के पार जाना पड़ेगा।
राजा ने कहा कि समुद्र तो बहुत गहरा होता है। समुद्र के पार जाना कोई आसान काम नहीं है। क्या तुम्हारे पास उसे पार करने के लिए कोई सरल उपाय है?
हाँ, यदि यात्रा में कोई व्यवधान आने लगे, जहाज़ डगमगाने लगे और तुम डूबने लगो तो पानी पर णमोकार मंत्र लिख कर अपने पाँव से मिटा देने से समुद्र के पार जाना आसान हो जाएगा।
राजा के मन में णमोकार मंत्र पर बहुत श्रद्धा थी। पर उस समय तो उसका मन स्वादिष्ट आम का वृक्ष पाने की लालसा से बंधा हुआ था। जब वह आधे समुद्र के रास्ते में पहुँचा तो ऊँची उठती हुई लहरों और पानी के वेग से भयभीत होने लगा और अपनी जान बचाने के लिए लालच के वशीभूत होकर जैसा देव ने बताया था, वैसा ही करने लगा। जैसे ही उसने पानी पर णमोकार मंत्र लिख कर उस पर पैर रखा वैसे ही उसके मन से णमोकार मंत्र के प्रति श्रद्धा समाप्त हो गई।
अभी तक तो वह आधे पानी में ही था पर णमोकार मंत्र पर पैर रखते ही वह गहरे समुद्र में डूब गया।
इसलिए किसी कार्य को करने से पहले उसके परिणाम पर एक बार विचार अवश्य करना चाहिए और किसी लालच के वशीभूत होकर णमोकार मंत्र पर अपनी आस्था व श्रद्धा को समाप्त नहीं होने देना चाहिए।
यह तो वह महामंत्र है जो हमें भवसागर से भी पार लगा सकता है।
विशेषः
संत कहते हैं कि पाप का विचार आते ही उसे रोकने का प्रयत्न करो।
मन में ऐसा विचार आए तो उसे वहीं रोक दो, वचन में न आने दो।
यदि जुबान पर भी आ जाए तो उसे वहीं रोक लो, काया में न आने दो।
काया से किया गया दुष्कार्य फल दिए बिना कभी नहीं जाएगा जैसे सौधर्म चक्रवर्ती को अपने दुष्कृत्य का फल भोगना ही पड़ा।
प्रवचन: पूज्य आर्यिका 105 दृढ़मति माता जी
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