श्री वीतराग स्तोत्र

श्री वीतराग स्तोत्र

इस दृश्यमान जगत में जो भी शरीर आदि पदार्थ दिखाई दे रहे हैं, वो ‘मैं’ नहीं हूँ।

कर्म से उत्पन्न राग आदि परिणाम स्वरूप ‘मैं’ आत्मा नहीं हूँ। निश्चय से परम आनन्द स्वरूप वीतरागता ही मेरा स्वभाव है।

ऐसे पर पदार्थों से ममत्व हटाकर निज स्वरूप में प्रीति जगाने के लिए इस ‘श्री वीतराग स्तोत्र’ की रचना की गई है। दूसरे के निमित्त से होने वाली व्याकुलता को दूर करने के लिए इसका पाठ, स्मरण और चिंतन रामबाण औषधि के समान कार्यकारी होता है।

शिवं शुद्ध बुद्धं परं विश्वनाथं, न देवो न बंधुर्न कर्मा न कर्त्ता।

न अंगं न संगं न स्वेच्छा न कायं, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।1।।

अर्थ -

मैं कल्याण स्वरूप, कर्मों से रहित, विश्वनाथ, श्रेष्ठ, चिदानन्द रूप वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ जो न देव है, न बंधु (कुटुम्बी) है, न कर्म है, न कर्त्ता है।

वह न अंग (शरीर का अवयव) है, न संग (परिग्रह) है, न स्वेच्छा (अपनी इच्छा) है और न ही काय (शरीर रूप) है।

न बन्धो न मोक्षो न रागादिदोषः, न योगं न भोगं न व्याधिर्न शोकः।

न कोपं न मानं न माया न लोभं, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।2।।

अर्थ -

मैं ऐसे वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ जो न बन्धु, न मोक्ष, न राग आदि दोष, न मन आदि योग, न भोग, न रोग आदि की व्याधि, न वियोग आदि का शोक स्वरूप है।

वे चिदानन्द न क्रोध, न मान, न माया और न लोभ स्वरूप हैं।

इस श्लोक में बताया गया है कि ऐसे कर्मों से रहित वीतराग देव को नमस्कार करके मैं भी सभी दोषों से मुक्ति प्राप्त कर लूँगा, ऐसी भावना से हम उनकी स्तुति कर रहे हैं।

न हस्तौ न पादौ न घ्राणं न जिह्वा, न चक्षुर्न कर्णं न वक्त्रं न निद्रा।

न स्वामी न भृत्यः न देवो न मर्त्यः, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।3।।

अर्थ -

जो न हाथ, न पैर, न नाक, न जीभ, न नेत्र, न कान, न मुँह, न निद्रा स्वरूप हैं।

जो न मालिक, न नौकर, न देवगति के देव और न मनुष्य गति के मनुष्य हैं। मैं ऐसे वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ।

न जन्म न मृत्युर्न मोहं न चिन्ता, न क्षुद्रो न भीतो न कार्श्यं न तन्द्रा।

न स्वेदं न खेदं न वर्णं न मुद्रा, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।4।।

अर्थ -

जिसका न जन्म होता है और न मृत्यु होती है। जिसे न मोह है और न किसी प्रकार की चिन्ता है। जो न क्षुद्र (छोटा) है, न भयभीत है। जो न कृश (कार्श्यं) है, न तन्द्रा में या प्रमाद में है।

जिसे न पसीने (स्वेदं) की बाधा होती है, न वह खेद से युक्त है। जिसका न रंग (वर्णं) है और न कोई चिह्न (मुद्रा) है। मैं ऐसे वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ।

जब हम बार-बार वीतराग देव की विशेषताओं का चिंतन करते हैं तो हम भी उन गुणों को धारण करने की भावना भाने लगते हैं।

त्रिदण्डे! त्रिखण्डे! हरे! विश्वनाथं, हृषीकेश! विध्वस्त-कर्मादिजालम्।

न पुण्यं न पापंन चाक्षादि-गात्रं, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।5।।

अर्थ -

हे तीन दण्ड के धारी! तीन खण्ड के अधिपति! हे सर्व दुःखहारी! हे विश्व के नाथ अर्थात् अपनी इन्द्रियों के स्वामी! हे नारायण! हे समस्त कर्म आदि के जाल को नष्ट करने वाले!

आप न पुण्य रूप हो न पाप रूप, न नेत्र आदि या शरीर स्वरूप हो। मैं ऐसे वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ।

न बालो न वृद्धो न तुच्छोन मूढो, न स्वेदं न भेदं न मूर्तिर्न स्नेहः।

न कृष्णं न शुक्लं न मोहं न तन्द्रा, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।6।।

अर्थ -

जो न बालक है, न वृद्ध है, न तुच्छ है, न मूर्ख है, न पसीने से बाधित है, न भेदरूप है, न मूर्तिक है और न स्नेह वाला है।

न काला है , न गोरा है, न मोही है और न तन्द्रारूप है। मैं ऐसे वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ।

वीतराग देव संसार में दुःख देने वाली सब बाधाओं से परे हैं। अतः हम भी उन गुणों को धारण करने की प्रेरणा प्राप्त करें, तभी हमारा जीवन सार्थक होगा।

न आद्यं न मध्यं न अन्तं न चान्यत्, न द्रव्यं न क्षेत्रं न कालो न भावः।

न शिष्यो गुरुर्नापि हीनं न दीनं, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।7।।

अर्थ -

जिसका न आदि है, न मध्य है। न अन्तस्वरूप है, न अन्य किसी दूसरे रूप में है। न वह द्रव्य है, न क्षेत्र है, न काल है, न भाव है।

न वह शिष्य है, न गुरु है, न हीन है, न दीन है। मैं आत्मा के आनन्द स्वरूप ऐसे वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ।

इदं ज्ञानरूपं स्वयं तत्त्ववेदी, न पूर्णं न शून्यं न चैत्य-स्वरूपम्।

न चान्यो न भिन्नं न परमार्थमेकं, चिदानन्द रूपं नमो वीतरागम् ।।8।।

अर्थ -

यह आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है और तत्त्वों को जानने वाली है। यह न पूर्ण, न शून्य, न प्रतिमा-स्वरूप है।

न अन्य है, न भिन्न है, न परमार्थ रूप है और न एक रूप है। मैं ऐसे आत्मा के आनन्द स्वरूप वीतराग देव को नमस्कार करता हूँ।

आत्माराम - गुणाकरं गुणनिधिं, चैतन्यरत्नाकरं,

सर्वे भूत-गतागते सुखदुःखे, ज्ञाते त्वयि सर्वगे,

त्रैलोक्याधिपते स्वयं स्वमनसा, ध्यायन्ति योगीश्वराः,

वंदे तं हरिवंशहर्ष-हृदयं, श्रीमान् हृदाभ्युद्यताम् ।।9।।

आत्मा रूपी बगीचे में गुणों की खान, गुणों के भंडार, चैतन्य रूपी समुद्र (रत्नाकर), सम्पूर्ण भूत, वर्तमान और भविष्य (भूत-गत-आगत) में होने वाले सुख और दुःख को जानने वाले आप सर्वज्ञ हो।

हे तीनों लोकों के अधिपति! आपको योगीश्वर, गणधर स्वतः अपने मन से ध्याते हैं।

मैं उन हरिवंश की हर्ष-हृदय से वंदना करता हूँ। हे श्रीमान् अर्थात् अन्तरंग व बहिरंग लक्ष्मी से युक्त वीतराग देव! मुझे अपने हृदय के निकट स्थान दें।

‘इति वीतराग स्तोत्र’

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