चौबोली रानी (भाग - 23)
चौबोली रानी (भाग - 23)
युवक ने कहा - मैं तो भूल ही चुका था कि ऐसी कोई प्रतिज्ञा मित्र ने की थी, किन्तु अब स्मरण आ गया। नव-वधू का चरित्र जानने के लिये पूछा - इस विषय में तुम्हारा क्या मत है? क्या तुम मेरे साथ रात बिताने को तैयार हो?
युवती की आँखों से आंसुओं का झरना फूट पड़ा। रुंधे हुए कंठ से उसने कहा - नारी का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि सुहागरात अपने स्वामी को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के साथ बितानी पड़े। नारी के लिये चरित्र से बढ़कर दुर्लभ और बहुमूल्य वस्तु और कोई नहीं हो सकती। मेरे स्वामी संकल्पित हैं कि यदि मैंने प्रथम रात्रि आपके साथ नहीं बिताई तो सूर्योदय होते ही वे आत्महत्या कर लेंगे। अपने पति के जीवन की रक्षा और वैधव्यपूर्ण जीवन से बचने के लिये मैं आपके पास आई हूँ। पुरुष का हठ नारी का दुर्भाग्य है। उनके वचन की भी रक्षा करनी है और प्राणों की भी। सूर्योदय होते ही लोग मुझे पहचान लेंगे। मेरी विवशता है, मैं पति की आज्ञा का पालन कर रही हूँ। आप वचन जीत गये हैं और मैं............। नव-वधू का वाक्य अधूरा ही रह गया।
पश्चिम दिशा वाले सुंदर युवक ने कहा - बहन!
सम्बोधन सुनकर नव-वधु ने युवक की ओर देखा और उसकी चरण-रज उठाकर अपने मस्तक पर चढ़ा ली। युवक ने वाक्य पूरा किया - मित्रता का अर्थ मित्र के आगे दुखों की दीवार खड़ी करना नहीं है बल्कि उस पर आये दुखों को दूर करना है। आज उसने तुम्हें मेरे पास भेज दिया, कल अपने कृत्य पर वह स्वयं पछतायेगा। ऐसी बातें छिपी नहीं रहती। उसका, मेरा और तुम्हारा सामाजिक जीवन कलंकित हो जायेगा और हम जीवन पर्यन्त इस अविवेकपूर्ण कृत्य के कलंक को धो नहीं पायेंगे। मेरी अच्छी बहन! लौट जाओ। “चरित्र रूपी मंदिर में पवित्रता का अखंड दीप” सदा अखंड रूप में प्रज्ज्वलित रखना। मेरा आशीर्वाद है, तुम्हारा जीवन सदा सुखी रहे।
नव-वधू ने कहा - भैया! राखी तो बंधवा लो। पश्चिम दिशा वाले मित्र ने हाथ लम्बा किया। नव-वधू ने तिलक करके राखी बांध दी। पूर्व दिशा वाला मित्र छिपकर यह सब देख और सुन रहा था। वह अपने अविवेक पर पछता रहा था और मित्र की महानता पर मुग्ध था। पश्चिम दिशा वाले मित्र ने कहा - बहन! अविलम्ब वापिस जाओ। प्रहरी पहरे पर घूम रहे होंगे। नव-वधू ने कहा - मैं लौट रही हूँ, किन्तु क्या स्वामी मेरी पवित्रता पर विश्वास करेंगे?
युवक ने कहा - बहन! तुम्हारा पति भावुक है। इस घटना का उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा, कह नहीं सकता किन्तु सत्य का सूर्य अधिक समय तक छिपा नहीं रहता। प्रातः मैं स्वयं आऊंगा और तुम्हारी पवित्रता की साक्षी दूंगा। अभी तुम अविलम्ब लौट जाओ। मैं स्वयं ही तुम्हारे साथ चलता किन्तु किसी ने देख लिया तो व्यर्थ लोग बदनाम करेंगे।
नव-वधू लौटी, किन्तु मार्ग में चोरों से उसने जो वायदा किया था, उसे भी पूरा करना था। चोर आतुरता से नव-वधू की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसने चोरों से कहा - भैया! मैं लौट आई हूँ। मेरे सारे आभूषण ले लो और मुझे जाने दो। मेरे पति लौटने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
चोरों ने कहा - तेरे आभूषण तो हम लेंगे ही किन्तु हमें तू भी चाहिये। पहले तेरे साथ आनंद करेंगे फिर रूप के हाट में तुझे बेच देंगे।
नव-वधू ने कहा - भैया! मेरे आभूषण ले लो और मुझे जाने दो। मैं प्राण दे दूंगी पर अपने सतीत्व पर आंच नहीं आने दूंगी। चोरों ने कहा - अभी पराये पुरुष के साथ रात बिता कर लौट रही है और हमारे सामने सीता, सावित्री बनने का नाटक कर रही है। हम चोर हैं, हमने दुनिया देखी है। रात्रि के एकांत में स्वेच्छा से आई सुंदरी को कौन नहीं भोगेगा? चल नाटक बंद कर।
नव-वधू ने कहा - तुम कैसी बातें करते हो? मैं जिसके पास गई थी वह देवताओं से भी अधिक पवित्र है। मेरे भैया के संबंध में ऐसी अश्लील बातें मत करो।
चोरों ने कहा - यदि एक पुरुष स्वेच्छा से आई युवती को बहन समझ सकता है तो वह वास्तव में महान त्यागी है। यदि यह बात सच है तो हम भी तेरा शील भंग नहीं करेंगे।
तीसरा चोर जो नव-वधू के पीछे-पीछे गया था, अब तक मौन खड़ा था। उससे पूछा तो उसने बताया कि यह युवती सच कह रही है। चोरों को बड़ा आश्चर्य हुआ और बोले - वास्तव में वह युवक देवता है। जब वह त्याग कर सकता है तो तेरी इच्छा के विपरीत हम भी तुझे कलंकित नहीं करेंगे। तू साहसी और सच्चरित्र नारी है, वास्तव में तू नारी नहीं देवी है। तेरे दर्शन कर हम धन्य हुए। तभी नव-वधू ने चोरों को तिलक लगा कर राखी बांध दी और प्रसन्न होकर बोली - आज से आप तीनों मेरे भाई हैं, प्रत्येक रक्षा बंधन पर राखी बंधवाने अवश्य आना। आओगे न?
क्रमशः
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