चौबोली रानी (भाग - 19)
चौबोली रानी (भाग - 19)
रात्रि का अंतिम प्रहर शेष रह गया था। तीन बार लीलावती बोल चुकी थी। राजकुमारी ने अपनी सखी के कान में कहा - रात्रि के प्रथम प्रहर से अब तक बैठे रहने के कारण थक गई हूँ। अल्प विश्राम के लिये अवकाश घोषित किया जाए। सखी ने लीलावती का मंतव्य सुना दिया। राजा विक्रमादित्य ने कहा - प्रतियोगिता का अंतिम चरण है, समय सीमा सूर्योदय तक निश्चित की गई है। इसलिये विश्राम का कोई औचित्य नहीं है। रानी लीलावती की सखी ने कहा - आप का कथन यथार्थ है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की श्रम करने की शक्ति सीमित होती है। हमारी स्वामिनी अन्याय में विश्वास नहीं करती। विश्राम में अधिक समय नहीं लगायेगी, सूर्योदय के पूर्व प्रतियोगिता समाप्त की जायेगी।
सभा अल्पकाल के लिये विसर्जित कर रानी लीलावती अपनी सहेलियों सहित राजप्रसाद में चली गई। सम्राट विक्रमादित्य ने कहा कि वह भी एकांत चाहते हैं। उनकी भावना के अनुसार उन्हें दुर्ग के सुसज्जित कक्ष में विश्राम की सुविधा उपलब्ध करा दी गई।
लीलावती अपनी शैया पर अधलेटी है। रात्रि जागरण की थकावट उसके चेहरे पर सहज ही देखी जा सकती है। सहेलियां समीप ही बैठी हैं। दासियाँ सेवा में लगी हुई हैं। राजकुमारी लीलावती ने सहेलियों से कहा - यह पुरुष विलक्षण बुद्धि वाला है। इसका चमत्कार समझ में नहीं आता। यह कौन है, कहां से आया है? गुप्तचरों को आदेश दिया जाए कि वे यह पता लगाएं कि यह पुरुष कौन है। अंतिम बोल शेष रह गया है। मैं हार गई तो मेरी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। गुप्तचर संस्था के प्रधान यज्ञदत्त को बुलाओ।
यज्ञदत्त उपस्थित हुआ। राजकुमारी लीलावती ने कहा - यज्ञदत्त पता लगाओ कि यह पुरुष कौन है? यज्ञदत्त ने विनम्रता से उत्तर दिया - स्वामिनी! राज्य के नियमानुसार हम राज्य में प्रवीष्ट होने वाले प्रत्येक व्यक्ति का पता करते हैं। आपकी आज्ञा से पहले ही सम्पूर्ण गुप्तचर विभाग इनका पता करने में लगा दिया था, किन्तु पता लगाना संभव नहीं हुआ।
लीलावती अपरिचित पुरुष का परिचय न पाकर निराश हुई। किन्तु गुप्तचर की बातें सुनकर उसे इतना विश्वास अवश्य हो गया कि अपरिचित कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। वह जितना विद्वान है, उतना ही सावधान और व्यवस्था में निपुण भी है।
एक सखी ने कहा - प्रिय लीलावती, निराश क्यों होती हो? अभी तो अंतिम बोल शेष है। सफलता के लिये प्रयत्न करो, यदि हार भी गई तो भी वह तुम्हारी जीत ही होगी। रानी ने कहा - सखी! व्यर्थ व्यंग्य मत करो। हारने में जीत कैसे होगी? सखी ने उत्तर दिया - तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, वह पूरी होने जा रही है। प्रत्येक नारी के जीवन में पुरुष और पुरुष के जीवन में नारी पूरक होती है। गृहस्थ जीवन रूपी रथ एक पहिये से नहीं चलता। क्या तुमने प्रतिज्ञा इसलिये ली थी कि कभी पूरी न हो? अब जब पूरी होने जा रही है तो दुःख कैसा?
दूसरी सखी ने कहा - रात्रि के अंतिम प्रहर की प्रतियोगिता प्रारम्भ होते ही तुम स्वयं ही बोल देना प्रतिज्ञा पूर्ण हो जायेगी। तुम्हें इससे अच्छा पति नहीं मिलेगा। राजकुमारी लीलावती ने कहा - “हट मूर्खा!”
राजभवन के कर्मचारी, सेवक आदि सब प्रसन्न थे। सब यही चाहते थे कि अंतिम बोल का परिणाम पुरुष के ही पक्ष में जाए। राजकुमारी लीलावती का विवाह न होने से उनके मत में लीलावती का स्वभाव कठोर और क्रूर होता जा रहा था।
सम्राट विक्रमादित्य पूर्ण निश्चिन्त थे कि विजय अब दूर नहीं है।
सम्राट ने वेताल से कहा - वेताल!
वेताल ने तत्काल उत्तर दिया - स्वामी! अनुचर प्रतिक्षण आपके समीप है।
सम्राट ने कहा - परीक्षा का अंतिम चरण शेष है, लगता है विजय हमारी ही होगी, किन्तु तुम सावधान रहना।
सहसा द्वार पर दस्तक हुई।
विक्रमादित्य ने कहा - कौन है? प्रवेश की अनुमति है।
अनुचर ने कक्ष में प्रवेश किया और कहा - महानुभाव! कुछ ही क्षणों में स्वामिनी राजदरबार में पधारेंगी, आप से निवेदन है कि दरबार में पधारने का कष्ट करें।
राजदरबार में शासकीय कर्मचारी अपनी-अपनी सेवा के स्थान पर खड़े थे। महामंत्री, मंत्री, सेनापति, श्रेष्ठि आदि सब अपने-अपने स्थान पर विराजमान थे। एक दासी ने आवाज़ लगाई - सावधान! राजकुमारी लीलावती दरबार में पधार रही हैं। अपनी सहेलियों और सेविकाओं के साथ लीलावती राजदरबार में पधारी। रूप गर्विता लीलावती के चेहरे से परिलक्षित हो रहा था जैसे जीत का संकल्प लेकर लौटी हो।
क्रमशः
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