चौबोली रानी (भाग - 20)
चौबोली रानी (भाग - 20)
रात्रि के अंतिम प्रहर में प्रतियोगिता के अंतिम चरण के शुभारंभ होने की घोषणा हुई। विक्रमादित्य ने वेताल को स्मरण किया। वेताल तत्काल बोला - “स्वामी! सेवक सदैव की भांति आपके साथ है, आज्ञा दीजिये। विक्रम और वेताल का वार्तालाप सिर्फ विक्रमादित्य ही सुन समझ सकते थे। विक्रमादित्य ने कहा - वेताल! राजकुमारी लीलावती का कंठ हार देख रहे हो? जाओ उसमें प्रवेश कर जाओ। वेताल ने तत्काल आज्ञा का पालन किया। सखियाँ आश्चर्य चकित रह गई कि लीलावती के कंठहार की आभा के सम्मुख सभाभवन में रखे दीपों की ज्योति मद्धम् लग रही थी। सहसा यह परिवर्तन कैसे हो गया? राजकुमारी लीलावती स्वयं आश्चर्यचकित थी।
सहसा विक्रमादित्य ने कहा - ओ हार! मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ, क्या उत्तर दोगे? कंठहार ने उत्तर दिया - मैं आदिकाल से ही नारियों का सबसे प्रिय आभूषण रहा हूँ। उनके कंठ की शोभा रहा हूँ। ओ चतुर पुरुष! मैं तुम्हारी बात का उत्तर अवश्य दूँगा।
विक्रमादित्य ने स्वयं से कहा - वेताल स्वामी भक्त है। इसकी स्वामिभक्ति पर शंका नहीं की जा सकती। प्रतियोगिता का अंत निकट है, परिणाम सामने आने वाला है। विलम्ब करने में कोई लाभ नहीं है।
विक्रमादित्य ने कहा - हे कंठहार! मैं तुम्हें कहानी सुनाता हूँ।
कंठहार ने उत्तर दिया - हे भद्र पुरुष! तुम बहुत विद्वान हो, चतुर हो, तुम्हारी कथा मैं बाद में सुनूंगा, पहले मेरी व्यथा कथा सुन लो।
विक्रमादित्य आश्चर्यचकित रह गये। वेताल को आज हो क्या गया है? यह अपनी बात में समय क्यों नष्ट कर रहा है? यदि रात्रि के अंतिम प्रहर में यही कथा सुनाता रहा तो जीती हुई बाज़ी हाथ से निकल जायेगी। किन्तु और कोई विकल्प न देख कर विक्रमादित्य ने कहा - हे स्वर्ण एवं रत्न जटित हार! संक्षेप में अपनी कथा सुनाओ।
कंठहार बोला - मैं अनादिकाल से ही कंठभूषण हार के नाम से प्रसिद्ध हूँ। आदिकाल में सम्राट ऋषभदेव और चक्रवर्ती सम्राट भरत ने मुझे धारण किया था। उस समय मेरा नाम इंद्रबंद हार था। इस हार को केवल तीर्थंकर और चक्रवर्ती सम्राट ही धारण करते थे। प्राचीन काल में मैं स्त्री एवं पुरुष दोनों के कंठ की शोभा बढ़ाता था। किन्तु कालदोष के कारण अब मात्र स्त्रियों के कंठ की शोभा बन कर रह गया हूँ। उस समय कला एवं मूल्य की दृष्टि से मेरे अनेक नाम थे। यदि हारों के मात्र नाम की ही गिनती बताऊं तो कम से कम एक रात चाहिये। यह तो हुई हारों की कहानी, परदेशी अब मेरी कहानी सुनो।
विक्रमादित्य ने मन ही मन सोचा - न जाने वेताल कितनी देर तक अपनी कहानी सुनाएगा! क्या वेताल अपने कर्त्तव्य से भटक गया है, या किसी ने मंत्र शक्ति से इसे भ्रमित कर दिया है। विवश होकर विक्रम ने कहा - हे कंठहार! शीघ्र अपनी कहानी सुनाओ।
कंठहार ने कहा - हार में परिवर्तित होने के पूर्व मैं स्वर्ण खदान में अपने परिचित-अपरिचित कांकर, पत्थर और मिट्टी में एकरूप था। किन्तु शोधकर्ताओं ने मुझे खोज निकाला। उस समय मैं शुद्ध भी था और अशुद्ध भी। बाद में रासायनिक क्रिया द्वारा मुझे शुद्ध किया गया और मैं शुद्ध स्वर्ण के रूप में आ गया। स्वर्ण के प्रशंसक मुझे खरीद कर लाये। स्वर्णहार बनने में मैंने इतनी पीड़ा सही कि मैं सुनता अधिक और बोलता कम हूँ। बोलूं क्या, बोल ही नहीं पाता। मेरा जन्म स्थान (खदान) बिछुड़ गया, साथी बिछुड़ गये। अब लीलावती का कंठहार हूँ। किन्तु मेरा कोई सम्मान नहीं, जब चाहा पहना, जब चाहा उतार दिया। पीड़ा से मेरा कंठ अवरुद्ध हो रहा है, हे परदेशी! तुम्हीं कोई कथा सुनाओ जिससे मेरी पीड़ा कम हो।
विक्रमादित्य ने कहा - हे कंठहार! सुनो और कथा में निहित प्रश्न का उत्तर दो। मैं दो मित्रों की प्रगाढ़ स्नेह बंधन की कथा सुनाता हूँ।
एक नगर में दो सजातीय परिवार रहते थे। एक पूर्व दिशा में और दूसरा पश्चिम दिशा में, किन्तु दोनों दिशाओं की भांति वे परस्पर विरोधी आयाम नहीं थे। संयोग से दोनों परिवारों में एक ही तिथि और एक ही समय पर दो बालकों ने जन्म लिया। जब बालकों की आयु दस वर्ष की हो गई तो उनमें प्रगाढ़ मैत्री हो गई।
दोनों बालक एक दिन नदी के किनारे गए और मिट्टी के घरौंदे बनाते बिगाड़ते रहे। समय का कोई बोध न रहा। सूर्य अस्ताचल की ओर यात्रा करता हुआ क्षितिज शैया पर विश्राम करने की तैयारी कर रहा था। तब इन्हें याद आया कि रात्रि समीप है, माता-पिता नाराज़ होंगे। इधर दोनों के माता-पिता बालकों के घर न पहुंचने पर अत्यंत चिंतित थे। खोजते-खोजते सरिता तट पर आ गए। वहां से बालकों को घर ले गए, परन्तु नाराज़ होकर उसी दिन से दोनों का मिलना-जुलना बंद कर दिया।
बिना मिले दोनों बालक बेचैन रहने लगे। विवश होकर माता-पिता ने दोनों को मिलने की अनुमति प्रदान कर दी। पूर्व और पश्चिम दिशा में रहने वाले बालकों में बाल्यकाल में जो मित्रता हुई थी, वह युवा अवस्था में पहुंचते-पहुंचते और भी दृढ़ हो गई। दोनों की मित्रता की नगर में चर्चा थी। दोनों युवक स्वस्थ, सुंदर और आर्थिक रूप से सम्पन्न थे।
क्रमशः
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