चौबोली रानी (भाग - 21)

चौबोली रानी (भाग - 21)

एक दिन दोनों मित्र परस्पर पारिवारिक संबंधों की चर्चा कर रहे थे। पूर्व दिशा में निवास करने वाले मित्र ने कहा - मित्र! तुम्हारी माता मेरी माता तुल्य है, तुम्हारे पिता मेरे पिता के समान हैं। तुम्हारी बहन मेरी बहन के समान है। पश्चिम दिशा में रहने वाले युवक ने कहा - ये क्या कहने की बातें हैं। जिस दृष्टि से तुम मेरे माता-पिता को देखते हो, सम्मान देते हो, मैं भी उसी दृष्टि से तुम्हारे माता-पिता को देखता हूँ।

पूर्व दिशा में रहने वाले युवक ने कहा - यह तो ठीक है, किन्तु मेरी पत्नी को तुम अपनी पत्नी समझना और तुम्हारी पत्नी को मैं अपनी पत्नी समझूंगा। पश्चिम दिशा में रहने वाले युवक ने कहा - अरे!..... और वह हंसने लगा। उसकी हंसी रुक ही नहीं रही थी। वह अपनी हंसी रोकने का जितना प्रयत्न करता, हंसी उतनी ही बढ़ती जाती। कुछ समय के पश्चात पश्चिम दिशा वाले मित्र ने कहा - क्या तुम्हें पवित्र संबंधों और सामाजिक मान्यताओं का ज्ञान नहीं? पत्नी जिसकी होती है, उसी की होती है, किसी दूसरे की नहीं। किसी दूसरे की पत्नी के प्रति ऐसा सोचना भी मानसिक व्यभिचार की परिभाषा में आता है। आज तो तुमने यह बात कही, भविष्य में इस संबंध में कोई चर्चा नहीं करना।

पूर्व दिशा में रहने वाले मित्र ने कहा - मित्र! मैं मित्रता में कोई दूरी रखने के पक्ष में नहीं हूँ। मेरी पत्नी को तुम भी अपनी पत्नी समझना। पश्चिम दिशावासी मित्र बोला - पागलपन की बातें मत करो। किसी अन्य व्यक्ति के सामने यह कह भी मत देना, अन्यथा तुम्हारी मूर्खतापूर्ण बात सुनकर नगर के लोग हँसेंगे। माता-पिता को ज्ञात हो गया तो उन्हें अत्यंत दुःख होगा। मैं न तो तुम्हारी पत्नी को अपनी पत्नी समझूंगा और न मेरी पत्नी को तुम्हारी पत्नी मानूंगा, कल्पना में भी तुम्हारी बात स्वीकार नहीं करूंगा।

पूर्व दिशावासी मित्र ने कहा - अच्छा मित्र! मैं तुम्हारी बात मान लेता हूँ, किन्तु यदि मेरा विवाह पहले हुआ तो मेरी पत्नी प्रथम रात्रि तुम्हारे साथ बितायेगी और तुम्हारा विवाह पहले हुआ तो तुम्हारी पत्नी प्रथम रात्रि मेरे साथ बितायेगी। यह शर्त स्वीकार है?

पश्चिम दिशावासी मित्र ने कहा - मित्र! तुम्हें लज्जा आनी चाहिये, क्या तुम पत्नी के संबंधों का अर्थ नहीं समझते? तुम जो कह रहे हो उसका अर्थ और परिणाम जानते हो?

पूर्व दिशावासी मित्र बोला - मैं अर्थ और परिणाम जानता हूँ या नहीं इससे तुम्हें मतलब नहीं। मैं जो कह रहा हूँ उसका उत्तर दो। पश्चिम दिशा वाला मित्र मौन रहा तो पूर्व दिशा वाले मित्र ने कहा - तुम चाहे प्रतिज्ञा मत करो पर मैं तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि विवाह के पश्चात अपनी पत्नी को तुम्हारे पास भेजूंगा। पश्चिम दिशावासी मित्र ने सोचा - यह मित्रता के प्रेम के आवेश में हठ पर चढ़ा हुआ है, बाद में इसे समझा दूंगा कि ऐसी प्रतिज्ञायें नहीं की जाती।

शीघ्र ही पूर्व दिशावासी मित्र का विवाह सम्पन्न होता है। आवेश अथवा भावुकता में प्रतिज्ञा कर लेना सरल है किन्तु उसका निर्वाह करना अत्यंत कठिन है।

मिलन की प्रथम प्रहर में नव-वधू शयन शैया पर बैठी है। नारी हृदय की सुकोमल भावनायें प्रतीक्षा में हैं कि प्रियतम आयेंगे और प्यार, अनुराग की बातें करेंगे। प्रत्येक नारी के जीवन में प्यार और विस्मयभरी रात्रि मात्र एक बार आती है। जो भावी जीवन के सुख-दुःख का आधार बनती है। नव-वधू शृंगार किये प्रियतम की प्रतीक्षा कर रही है। उसका पति कक्ष में प्रवेश करता है किन्तु प्रथम मिलन की रात्रि में जो उत्सुकता, भावुकता हृदय में रहती है, उसका उसके हृदय में सर्वथा अभाव था। कक्ष में मंद प्रकाश था। उसका पति आया और एक भद्रासन पर बैठ गया। बहुत देर तक वह चिंतायुक्त बैठा रहा। प्रतीक्षा करने की भी एक सीमा होती है तभी नव-वधू ने सोचा - स्वामी चिंताग्रस्त लगते हैं, लज्जा छोड़कर मुझे ही पहले बात करनी चाहिये।

नव-वधू ने कहा - स्वामी! आज मिलन की प्रथम रात्रि है, आपकी उपेक्षा असहनीय हो उठी है। क्या मैं आपकी भावनाओं के अनुरूप सुंदर नहीं हूँ? क्या मैंने अनजाने में कोई अपराध किया है अथवा क्या मेरे माता-पिता ने आपकी अपेक्षा के अनुरूप दहेज नहीं दिया? आप बोलते क्यों नहीं हैं?

पति ने उत्तर दिया - नहीं प्रिये! तुम मेरी अपेक्षा से अधिक सुंदर और सुशील हो। तुमने कोई अपराध नहीं किया है। किन्तु मकड़ी की भांति मैंने स्वयं ही दुखों का जाल बुन लिया है, उसमें से मैं निकल नहीं पा रहा हूँ।

नव-वधू बोली - स्वामी! पहेलियों में बात मत कीजिये। आपकी समस्या क्या है, स्पष्ट कहिये।

क्रमशः

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