द्वीपायन मुनि की कथा

आराधना-कथा-कोश के आधार पर

द्वीपायन मुनि की कथा

संसार के स्वामी और अनन्त सुखों को देने वाले श्री जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर द्वीपायन मुनि का चरित्र लिखा जाता है, जैसा पूर्वाचार्यों ने उसे लिखा है।

सोरठ देश में द्वारका प्रसिद्ध नगरी है। नेमिनाथ भगवान् का जन्म यहीं हुआ है। इससे यह बड़ी पवित्र समझी जाती है। जिस समय की यह कथा लिखी जाती है उस समय द्वारका पर नौवें नारायण-बलभद्र और वासुदेव राज्य करते थे। एक दिन ये दोनों राज-राजेश्वर गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ भगवान् की पूजा वंदना करने को गये। भगवान् की इन्होंने भक्ति पूर्वक पूजा की और उनका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर इन्हें बहुत प्रसन्नता हुई।

इसके बाद बलभद्र ने भगवान् से पूछा - हे संसार के बन्धु, हे केवलज्ञान रूपी नेत्र के धारक, हे तीन जगत के स्वामी, हे करुणा के सागर, हे लोकालोक के प्रकाशक! कृपाकर कहिए कि वासुदेव को पुण्य से जो सम्पत्ति प्राप्त है, वह कितने समय तक ठहरेगी? भगवान् बोले - बारह वर्ष पर्यन्त वासुदेव के पास रहकर फिर नष्ट हो जाएगी। इसके सिवा मद्यपान से यदुवंश का समूल नाश होगा, द्वारका द्वीपायन मुनि के श्राप से जलकर खाक हो जाएगी और बलभद्र, तुम्हारी इस छुरी द्वारा जरत्कुमार के हाथों से श्री कृष्ण की मृत्यु होगी।

भगवान् के द्वारा यदुवंश, द्वारका और वासुदेव का भविष्य सुनकर बलभद्र द्वारका आए। उस समय द्वारका में जितनी शराब थी, उसे उन्होंने गिरनार पर्वत के जंगलों में डलवा दिया। उधर द्वीपायन अपने माध्यम से द्वारका का भस्म होना सुन मुनि हो गये और द्वारका को छोड़कर कहीं अन्यत्र चल दिये। चाहे मूर्ख लोग भविष्य की अनहोनी को समझकर कुछ यत्न भी करें, पर भगवान् का कहा कभी झूठा नहीं होता।

बलभद्र ने मदिरा को तो फिकवा दिया था, अब एक छुरी और उनके पास रह गई थी, जिसके द्वारा भगवान ने श्री कृष्ण की मौत होना बतलाई थी। बलभद्र ने उसे भी खूब घिस-घिस कर समुद्र में फिकवा दिया। कर्मयोग से उस छुरी को एक मच्छ निगल गया और वही मच्छ फिर एक मल्लाह की जाल में आ फँसा। उसे मारने पर उसके पेट से यह छुरी निकली और धीरे-धीरे वह जरत्कुमार के हाथ तक भी पहुँच गई। जरत्कुमार ने उसका बाण के लिए फला बनाकर उसे अपने बाण पर लगा लिया।

बारह वर्ष हुए नहीं, पर द्वीपायन को लीप के एक अतिरिक्त महीने का ख्याल न रहने से बारह वर्ष पूरे हुये समझ वे द्वारका की ओर लौट कर गिरनार पर्वत के पास ही कहीं ठहरे और तपस्या करने लगे। पर तपस्या द्वारा कर्म का ऐसा योग कभी नष्ट नहीं किया जा सकता।

एक दिन की बात है कि द्वीपायन मुनि आतापन योग द्वारा तपस्या कर रहे थे। इसी समय मानों पाप कर्म द्वारा प्रेरित यादवों के कुछ लड़के गिरनार पर्वत से खेलकूद कर लौट रहे थे। रास्ते में इन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। यहाँ तक कि ये बैचेन हो गये। इनके लिए घर आना मुश्किल पड़ गया। आते-आते इन्हें पानी से भरा एक गड्ढा दिखाई पड़ा। पर वह पानी नहीं था; अपितु बलभद्र ने जो शराब ढुलवा दी थी, वही बहकर इस गड्ढे में इकट्ठी हो गई थी। इस शराब को ही उन लड़कों ने पानी समझ पी लिया। शराब पीकर थोड़ी देर ही हुई होगी कि उसने इन पर अपना रंग जमाना शुरू किया। नशे से ये सुध-बुध भूलकर उन्मत्त की तरह कूदते-फाँदते आने लगे।

रास्ते में इन्होंने द्वीपायन मुनि को ध्यान करते देखा। मुनि की रक्षा के लिए बलभद्र ने उनके चारों ओर एक पत्थरों का कोट सा बनवा दिया था। एक ओर उसके आने जाने का दरवाज़ा था। इन शैतान लड़कों ने मज़ाक में आ उस जगह को पत्थरों से पूर दिया। सच है, शराब पीने से सब सुध-बुध भूलकर बड़ी बुरी हालत हो जाती है। यहाँ तक कि उन्मत्त पुरुष अपनी माता-बहिनों के साथ भी बुरी वासनाओं को प्रगट करने में नहीं लजाता है। शराब पीने वाले पापी लोगों को हित-अहित का कुछ ज्ञान नहीं रहता। इन लड़कों की शैतानी का हाल जब बलभद्र को मालूम हुआ तो वे वासुदेव को लिये दौड़े-दौड़े मुनि के पास आये और उन पत्थरों को निकालकर उनसे उन्होंने क्षमा प्रार्थना की।

इस क्षमा प्रार्थना का मुनि पर कोई असर नहीं हुआ। उनके प्राण निकलने की तैयारी कर रहे थे। मुनि ने सिर्फ दो उंगलियाँ उन्हें बतलाई और थोड़ी ही देर बाद वे मर गये। क्रोध से मरकर तपस्या के फल से ये व्यन्तर हुए। इन्होंने कुअवधि ज्ञान द्वारा अपने व्यन्तर होने का कारण जाना तो इन्हें उन लड़कों के उपद्रव की सब बातें ज्ञात हो गई। यह देख व्यन्तर को बड़ा क्रोध आया।

उसने उसी समय द्वारका में आकर आग लगा दी। सारी द्वारका धन-जन सहित देखते-देखते खाक हो गई। सिर्फ बलभद्र और वासुदेव बच पाये, जिनके लिये द्वीपायन ने दो उंगलियाँ बतलाई थी। सच है, क्रोध के वश हो मूर्ख पुरुष सब अनिष्ट कर बैठते हैं। इसलिये भव्यजनों को शान्ति-लाभ के लिए क्रोध को कभी पास भी फटकने नहीं देना चाहिए।

उस भयंकर अग्नि लीला को देखकर बलभद्र और वासुदेव का भी जीने का ठिकाना न रहा। ये अपना शरीर मात्र लेकर भाग निकले। यहाँ से निकलकर ये एक घोर जंगल में पहुँचे। सच है, पाप का उदय आने पर सब धन दौलत नष्ट होकर जीवन बचाना तक मुश्किल पड़ जाता है। जो पलभर पहले सुखी रहा हो वह दूसरे ही पल में पाप के उदय से अत्यन्त दुःखी हो जाता है इसलिए जिन लोगों के पास बुद्धि रूपी धन है, उन्हें चाहिये कि वे पाप के कारणों को छोड़कर पुण्य के कामों में अपने हाथों का प्रयोग करें। पात्रदान, जिन-पूजा, परोपकार, विद्याप्रचार, शील, व्रत, संयम आदि ये सब पुण्य के कारण हैं।

बलभद्र और वासुदेव जैसे ही उस जंगल में आये, वासुदेव को यहाँ अत्यन्त प्यास लगी। प्यास के मारे वे गश खाकर गिर पड़े। बलभद्र उन्हें ऐसे ही छोड़कर जल लाने चले गये। इधर जरत्कुमार न जाने कहाँ से इधर ही आ निकला। उसने श्रीकृष्ण को हरिण के भ्रम से बाण द्वारा बेध दिया। पर जब उसने आकर देखा कि वह हरिण नहीं, अपितु श्री कृष्ण हैं, तब तो उसके दुःख का कोई पार न रहा। पर अब वह कुछ करने-धरने को लाचार था। वह बलभद्र के भय से फिर उसी समय वहां से भाग लिया। इधर बलभद्र जब पानी लेकर लौटे और उन्होंने श्रीकृष्ण की यह दशा देखी तब उन्हें जो दुःख हुआ, वह लिखकर नहीं बताया जा सकता। यहाँ तक कि वे भ्रातृ प्रेम से भ्रमित से हो गये और श्री कृष्ण को कंधों पर उठाये महीनों पर्वतों और जंगलों में घूमते फिरे।

बलभद्र की यह हालत देख पूर्व-जन्म के मित्र एक देव को बहुत खेद हुआ। उसने आकर इन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और इनसे भाई का दाह-संस्कार करवाया। संस्कार कर जैसे ही ये निवृत्त हुए, इन्हें संसार की दशा पर बड़ा वैराग्य हुआ। ये उसी समय सब दुःख, शोक, माया-ममता छोड़कर योगी हो गये। इन्होंने फिर पर्वतों पर खूब दुःसह तप किया। अंत में धर्मध्यान सहित मरणकर ये माहेन्द्र-स्वर्ग में देव हुए। वहाँ ये प्रतिदिन नित नये और मूल्यवान सुंदर-सुंदर वस्त्राभूषण पहनते हैं, अनेक देव-देवी इनकी आज्ञा में सदा हाजिर रहते हैं, नाना प्रकार के उत्तम से उत्तम स्वर्गीय भोगों को ये भोगते हैं, विमान द्वारा कैलाश, सम्मेद शिखर, हिमालय, गिरनार आदि पर्वतों की यात्रा करते हैं और विदेह क्षेत्र में जाकर साक्षात् जिनभगवान् की पूजा-भक्ति करते हैं। मतलब यह है कि पुण्य के उदय से उन्हें सब सुख प्राप्त हैं और वे आनन्द-उत्सव के साथ अपना समय बिताते हैं।

जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप इन तीन महान् रत्नों से भूषित हैं, जो जिनभगवान् के चरणों के सच्चे भक्त हैं, चारित्र धारण करने वालों में जो सबसे ऊँचे है, जिनकी परमपवित्र बुद्धि गुणरूपी रत्नों से शोभा को धारण किये हैं, और जो ज्ञान के समुद्र हैं, ऐसे बलभद्र मुनिराज मुझे वह सुख, शांति और वह मंगल दें, जिससे मन सदा प्रसन्न रहे।

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