अभयघोष मुनि की कथा

आराधना-कथा-कोश के आधार पर

अभयघोष मुनि की कथा

देवों द्वारा पूजा भक्ति किये गये जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर अभयघोष मुनि का चरित्र लिखा जाता है।

अभयघोष काकन्दी के राजा थे। उनकी रानी का नाम अभयमती था। दोनों में परस्पर बहुत प्यार था। एक दिन अभयघोष घूमने को जंगल में गए हुए थे। इसी समय एक मल्लाह एक बड़े और जीवित कछुए के चारों पाँव बाँधकर उसे लकड़ी में लटकाये हुए लिये जा रहा था। पापी अभयघोष की उसपर नजर पड़ गई। उन्होंने मूर्खता के वश हो अपनी तलवार से उसके चारों पाँवों को काट दिया। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग बेचारे ऐसे निर्दोष जीवों को निर्दयता के साथ मार डालते हैं और न्याय-अन्याय का कुछ विचार नहीं करते। कछुआ उसी समय तड़फड़ाकर गत-प्राण हो गया। मरकर वह अकाम-निर्जरा के फल से इन्हीं अभयघोष के यहाँ चंडवेग नाम का पुत्र हुआ।

एक दिन राजा को चन्द्रग्रहण देखकर वैराग्य हुआ। उन्होंने विचार किया जो एक महान् तेजस्वी ग्रह है, जिसकी तुलना कोई नहीं कर सकता और जिसकी गणना ज्योतिष देवों में है, वह भी जब दूसरों से हार खा जाता है तब मनुष्यों की तो बात ही क्या? जिनके सिर पर काल सदा चक्कर लगाता रहता है। हाय, मैं बड़ा ही मूर्ख हूँ जो आज-तक विषयों में फँसा रहा और कभी अपने हित की ओर मैंने ध्यान नहीं दिया। मोहरूपी गाढ़े अँधेरे ने मेरी दोनों आँखों को ऐसा अंधा बना डाला, जिससे मुझे अपने कल्याण का रास्ता देखने या उस पर सावधानी के साथ चलने को सूझ ही न पड़ा। इसी मोह के पापमय जाल में फँसकर मैंने जैन-धर्म से विमुख होकर अनेक पाप किये। हाय! मैं अब इस संसार रूपी अथाह समुद्र को पार कर सुखमय किनारे को कैसे प्राप्त कर सकूँगा। प्रभो, मुझे शक्ति प्रदान कीजिये, जिससे मैं आत्मिक सच्चा-सुख लाभ कर सकूँ।

इस विचार के बाद उन्होंने स्थिर किया कि जो हुआ सो हुआ। अब भी मुझे अपने कर्त्तव्य के लिए बहुत समय है। जिस प्रकार मैंने संसार में रहकर विषय-सुख भोगा, शरीर और इन्द्रियों को खूब सन्तुष्ट किया, उसी तरह अब मुझे अपने आत्म-हित के लिए कड़ी से कड़ी तपस्या कर अनादिकाल से पीछा किये हुए इन आत्मशत्रु कर्मों का नाश करना उचित है, यही मेरे पहले किये कर्मों का पूर्ण-प्रायश्चित है, और ऐसा करने से ही मैं शिवरमणी के हाथों का सुख स्पर्श कर सकूँगा। इस प्रकार स्थिर विचार कर अभयघोष ने सब राज्यभार अपने कुवँर चण्डवेग को सौंप जिन दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर उन्हें आत्म-शक्ति के बढ़ाने को सहायक बनाती है।

इसके बाद मुनि अभयघोष संसार समुद्र से पार करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज को नमस्कार कर और उनकी आज्ञा ले देश-विदेशों में धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विहार कर गये। इसके कुछ वर्ष ही बाद वे घूमते फिरते फिर एक बार अपनी राजधानी काकन्दी की ओर आ निकले। एक दिन ये वीरासन से तपस्या कर रहे थे। इसी समय इनका पुत्र चण्डवेग इस ओर आ निकला।

पाठकों को याद होगा कि चण्डवेग पूर्व-जन्म में कछुआ था और अपने पिता अभयघोष के साथ शत्रुता है। कारण चण्डवेग पूर्व-जन्म में जब कछुआ था तब उसके पाँव अभयघोष ने काट डाले थे। सो चाण्डवेग की जैसे ही इन पर नज़र पड़ी उसे अपने पूर्व जन्म की याद आ गई। उसने क्रोध से अंधे होकर उनके भी हाथ-पाँवों को काट डाला। सच है धर्म-हीन अज्ञानी जन कौन-सा पाप नहीं कर डालते।

अभयघोष मुनि पर महान् उपसर्ग हुआ, पर वे भी मेरु के समान अपने कर्त्तव्य में दृढ़ बने रहे। अपने आत्म-ध्यान से वे रत्तीभर भी न डिगे। इसी ध्यान-बल से केवलज्ञान प्राप्त कर अन्त में उन्होंने अक्षयान्त मोक्ष-लाभ किया। सच है, आत्म-शक्ति बड़ी गहन है, आश्चर्य पैदा करने वाली है। देखिए, कहाँ तो अभयघोष मुनि पर दुःख कष्ट का आना और कहाँ मोक्ष प्राप्ति का कारण दिव्य आत्मध्यान!

सत्पुरुषों द्वारा सेवा किये गये वे अभयघोष मुनि मुझे भी मोक्ष का सुख दें, जिन्होंने दुःसह परीषह को जीता, आत्मशत्रु राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को नष्ट किया और जन्म-जन्म में दारुण दुःखों के देने वाले कर्मों का क्षयकर मोक्ष का सर्वोच्च सुख, जिस सुख की कोई तुलना नहीं कर सकता, प्राप्त किया।

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