14 गुण स्थान (भाग - 26)
14 गुण स्थान (भाग - 26)
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के अंतरंग कारण
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का अंतरंग कारण आत्मा की विशुद्धि अर्थात दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय, क्षयोपशम है।
चारों अनुयोगों के अनुसार सम्यग्दर्शन की परिभाषा -
अनुयोग 4 प्रकार के होते हैं।
प्रथमानुयोग
करणानुयोग
चरणानुयोग
द्रव्यानुयोग
1. प्रथमानुयोग और चरणानुयोग के अनुसार सम्यग्दर्शन की परिभाषा -
सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का 8 मद रहित, 8 शंकादि दोष रहित, 6 अनायतन रहित और 3 मूढ़ता रहित तथा निःशंकित आदि 8 अंगों सहित जो श्रद्धान होता है, उसे इन दोनों अनुयोगों के अनुसार सम्यग्दर्शन कहते हैं।
2. करणानुयोग के अनुसार सम्यग्दर्शन की परिभाषा -
अनंतानुबंधी (क्रोध, मान, माया, लोभ) तथा मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति; इन 7 कर्म प्रकृतियों के उपशम, क्षय व क्षयोपशम से आत्मा की जो निर्मल परिणति होती है, उसे करणानुयोग के अनुसार सम्यग्दर्शन कहते हैं।
3. द्रव्यानुयोग के अनुसार सम्यग्दर्शन की परिभाषा -
जीवादि 7 तत्व का जैसा स्वरूप है, उनका जब उसी रूप में श्रद्धान होता है तो उसे द्रव्यानुयोग के अनुसार सम्यग्दर्शन कहते हैं।
सम्यग्दर्शन के भेद -
सम्यग्दर्शन के 10 भेद हैं।
1. आज्ञा सम्यक्त्व
वीतरागी जिनेन्द्र की आज्ञा मात्र का श्रद्धान करने से उत्पन्न सम्यक्त्व को आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं।
2. मार्ग सम्यक्त्व
मोक्ष मार्ग को कल्याणकारी समझकर उस पर अचल श्रद्धान करना मार्ग सम्यक्त्व है।
3. उपदेश सम्यक्त्व
63 श्लाका (24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण, 9 बलभद्र) पुरुषों के पुराण उपदेश से जो सम्यग्दर्शन होता है, उसे उपदेश सम्यक्त्व कहते हैं।
4. सूत्र सम्यक्त्व
मुनि के सकल चारित्र को सूचित करने वाले आचार सूत्रों को सुनकर तत्व श्रद्धान होता है, उसे उत्तम सूत्र सम्यग्दर्शन कहा गया है।
5. बीज सम्यक्त्व
बीज पदों के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान ही बीज सम्यग्दर्शन कहलाता है।
6. संक्षेप सम्यक्त्व
जो भव्य जीव पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान कर तत्व श्रद्धान को प्राप्त हुआ है, उसके सम्यक्त्व को संक्षेप सम्यग्दर्शन कहते हैं।
7. विस्तार सम्यक्त्व
जो भव्य जीव 12 अंगों को सुनकर तत्व श्रद्धानी हो जाता है, उसे विस्तार सम्यग्दर्शन कहते हैं।
8. अर्थ सम्यक्त्व
अंगबाह्य आगमों को पढ़े बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो अर्थ श्रद्धान होता है, उसे अर्थ सम्यक्त्व कहते हैं।
9. अवगाढ़ सम्यक्त्व
श्रुत केवली का सम्यक्त्व अवगाढ़ सम्यक्त्व है।
10. परमावगाढ़ सम्यक्त्व
केवली का सम्यग्दर्शन परमावगाढ़ सम्यक्त्व है।
नोट - आज्ञा सम्यक्त्व आदि 6 सम्यक्त्वों में बाह्य कारण प्रधान है। चूंकि इनमें बाह्य कारणों की अपेक्षा से ही भेद हुआ है तथा विस्तार आदि 3 सम्यक्त्वों में श्रुतज्ञान-रूप अंतरंग कारण प्रधान है और अंतिम सम्यक्त्व में तो केवलज्ञान की ही अपेक्षा है।
सम्यग्दर्शन के दोष -
3 मूढ़ता, 8 मद, 6 अनायतन और शंकादि 8 दोषों सहित, इन 25 दोषों के द्वारा क्षयोपशम सम्यग्दर्शन के गुण निर्मल न रहकर मलिन हो जाते हैं।
3 मूढ़ता -
मूढ़ता का अर्थ है - ‘धार्मिक अंधविश्वास’। आत्म हित का विचार किए बिना ही अंध श्रद्धालु बनकर अज्ञानपूर्ण प्रवृत्ति करना मूढ़ता है।
1) लोक मूढ़ता - इस लोक में फल की अपेक्षा से एवं धर्म बुद्धि से नदी, सागर आदि में स्नान करना, पर्वत से कूदना, अग्नि में प्रवेश करना, पत्थरों का ढेर बना कर पूजना आदि लोक मूढ़ता है।
2) देव मूढ़ता - लौकिक फल एवं दान की अभिलाषा से राग-द्वेष से मलिन देवी-देवताओं की पूजा करना देव मूढ़ता है। वस्तुतः देव संबंधी अंधविश्वास की पूर्ति के साधन देव मूढ़ता में समाविष्ट हैं। कुदेव, कुगुरु व कुधर्म की आराधना करना देव मूढ़ता है।
3) गुरु मूढ़ता - आरंभ, परिग्रह, हिंसा से युक्त और संसार में डुबोने वाले कार्यों में लीन साधुओं का सत्कार करना गुरु मूढ़ता है।
8 मद -
क्षणिक संभोगों/भौतिक उपलब्धियों में मदहोश होकर घमंड से चूर रहना मद कहलाता है। निमित्तों की अपेक्षा मद 8 प्रकार के हैं -
ज्ञान मद - ज्ञान हो जाने पर ज्ञान का मद हो जाना
पूजा मद - अपनी पूजा-प्रतिष्ठा या लौकिक सम्मान के गर्व में चूर रहना प्रतिष्ठा मद है।
कुल मद - अपने पितृ-पक्ष की उच्चता का गर्व करना कुल मद है।
जाति मद - अपनी माता के वंश का अभिमान करना जाति मद है।
बल मद - अपने शारीरिक बल के आगे सभी को निर्बल समझना और अपने शरीर के गर्व में डूबे रहना बल मद है।
ऋद्धि मद - ऋद्धि अथवा धन-वैभव और ऐश्वर्य पाकर गर्व करना ऋद्धि मद है।
तप मद - अपने आप को सबसे बड़ा तपस्वी मानकर अपने आगे अन्य साधकों को तुच्छ समझना तप मद है।
रूप/शरीर मद - थोड़ा-सा रूपवान होने पर रूप के घमंड में डूबे रहना ही रूप मद है।
6 अनायतन -
आयतन का अर्थ है - आधार, आवास, घर, आश्रय। यहाँ सम्यग्दर्शन का प्रकरण होने से आयतन का अर्थ है - धर्म का आधार या घर। इसके विपरीत अधर्म या मिथ्यात्व के स्थान को अनायतन कहते हैं।
प्रकार -
अनायतन 6 प्रकार के होते हैं।
कुगुरु, कुदेव, कुधर्म व इन तीनों को मानने वाले आराधक - ये छहों मिथ्यात्व के पोषक होने से हमारे चित्त की मलिनता और संसार के अभिवर्धक हैं। भय, आशा, स्नेह अथवा प्रलोभन वश इनकी पूजा, आराधना करना और भक्ति प्रशंसा करना, सम्यग्दर्शन के 6 अनायतन दोष हैं।
सम्यग्दर्शन के 8 दोष -
शंका - वीतराग व उनके द्वारा उपदिष्ट तत्वों में विश्वास न करके, उनके प्रति शंका से सहित रहना।
काँक्षा - भौतिक भोगोपभोगों एवं इहलोक सुखों की अपेक्षा रखना।
विचिकित्सा - रत्नत्रय के प्रति अनादर रखते हुए, धर्मात्मा जनों के मलिन शरीर को देखकर उनके प्रति घृणा करना।
मूढ़ दृष्टि - सत्य और असत्य मार्ग के विचार एवं विवेक से रहित होकर उन्मार्ग एवं उन्मार्गियों के प्रति झुकाव रखना।
अनुपगूहन अंग - धर्मात्माओं के दोषों को उजागर कर धर्म मार्ग की निंदा करना।
अस्थितिकरण - किसी कारणवश धर्म में स्खलित/चलायमान होते हुए व्यक्ति को धर्म मार्ग में स्थिर करने का प्रयास न करना।
अवात्सल्य - साधर्मी जनों से प्रेम न करना, उनसे मात्सर्य (ईर्ष्या) या विद्वेष करना।
अप्रभावना - अपने खोटे आचरण एवं प्रवृत्तियों से धर्म मार्ग को कलंकित करना, धर्म मार्ग के प्रचार-प्रसार में सहभागी न बनना।
इस प्रकार ये सम्यग्दर्शन के 25 दोष हैं। इन दोषों से रहित ही शुद्ध क्षयोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
Comments
Post a Comment