14 गुण स्थान (भाग - 27)
14 गुण स्थान (भाग - 27)
क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव के शिथिलतावश सम्यग्दर्शन में 5 अतिचार लगते हैं।
सम्यग्दर्शन के अतिचार -
अतिचार का अर्थ है ‘प्रतिज्ञा का आंशिक खण्डन’। ये निम्न प्रकार से लगते हैं -
शंका - वीतरागी जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित तत्वों में श्रद्धान न करके शंका करना, उसे संदिग्ध दृष्टि से देखना।
काँक्षा - धर्माचरण से ऐहिक फलों व विषय भोगों की आकाँक्षा रखना।
विचिकित्सा - मुनिजनों की आंतरिक उज्ज्वलता को न देखकर शारीरिक मलिनता को देखना व मन में ग्लानि का भाव उत्पन्न करना।
अन्य दृष्टि प्रशंसा - कुमार्गगामी व्यक्ति की परोक्ष में प्रशंसा करना अर्थात् कुगुरु-कुदेव-कुशास्त्रों की मन से प्रशंसा करना।
अन्य दृष्टि संस्तवन - कुगुरु-कुदेव-कुशास्त्रों की स्तुति करना और अपने मुख से प्रशंसा करना।
सम्यग्दर्शन के गुण -
संवेग - धर्म ओर धर्म के फल तथा धर्मात्माओं के प्रति अत्यन्त हर्ष, अनुराग और उत्साह बना रहना।
निर्वेग/निर्वेद - संसार, शक्ति और विषय भोगों से विरक्ति।
आत्म-निंदा - अपने दोषों की निन्दा/आलोचना करना।
आत्म-गर्हा - गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना।
उपशम - क्रोध आदि विकारों को नियंत्रित रखना।
भक्ति - अर्हत्-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु आदि पूज्यजनों की पूजा स्तुति, विनय आदि करना।
अस्तिकाय - आत्मा, कर्म, पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक आदि में विश्वास रखना।
अनुकम्पा - सभी जीवों के प्रति दया भाव रखना।
सम्यग्दर्शन के अंग -
निःशंकित - मोक्ष मार्ग में शंका नहीं करना, अविश्वास नहीं करना, उस पर संदेह न करके अचल आस्था रखना।
निःकांक्षित - लोक और परलोक संबंधी भौतिक विषय भोगों की आकांक्षा नहीं करना।
निर्विचिकित्सा - धार्मिक जनों के ग्लानि भरे रूप को देखकर ग्लानि नहीं अपितु उनके गुणों के प्रति आदर करना।
अमूढ़ दृष्टि - लौकिक प्रलोभन, चमत्कार, दबाव, बाह्य वेश, कुमार्ग की ओर न झुकना।
उपगूहन - दूसरों के दोष तथा अपने गुणों को छिपा कर रखना।
स्थितिकरण - किसी कारणवश धर्ममार्ग से च्युत होते हुए व्यक्ति को सहारा देकर धर्म मार्ग में स्थिर रखना।
वात्सल्य - धर्मात्माओं के प्रति आंतरिक अनुराग रखना।
प्रभावना - जनकल्याण की भावना से अपने आचरण और प्रतिभा से धर्म का प्रचार-प्रसार करना।
समंतभद्र आचार्य कहते हैं - इन अंगों की पूर्णता से ही सम्यग्दर्शन सार्थक होता है।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
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