14 गुण स्थान (भाग - 29)
14 गुण स्थान (भाग - 29)
प्र. 1. परावर्तन काल और अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल किसे कहते हैं?
उत्तर - संसार के परिवर्तन रूप चक्र को परावर्तन कहते हैं। जन्म-मरण रूप संसार में भ्रमण करने को परावर्तन कहते हैं।
परावर्तन 5 प्रकार का होता है -
द्रव्य परावर्तन
क्षेत्र परावर्तन
काल परावर्तन
भव परावर्तन
भाव परावर्तन
1. द्रव्य परावर्तन - नोकर्म पुद्गलों को अमुक क्रम से ग्रहण करने और भोग कर छोड़ देने रूप परिभ्रमण का नाम द्रव्य-परावर्तन है।
2. क्षेत्र-परावर्तन - लोकाकाश के सब प्रदेशों में अमुक क्रम से उत्पन्न होने और मरने रूप परिभ्रमण का नाम क्षेत्र परावर्तन है।
3. काल-परावर्तन - क्रम से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सभी समयों में जन्म लेने व मरने रूप परिभ्रमण का नाम काल परावर्तन है।
4. भव परावर्तन - नरकादि गतियों में बार-बार उत्पन्न होकर जघन्य से लेकर उत्कृष्ट पर्यंत सब आयु को भोगने रूप परिभ्रमण का नाम काल परावर्तन है।
5. भाव परावर्तन - सब योग स्थानों और क्रम से ज्ञानावरण आदि सब कर्मों की जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति को भोगने रूप परिभ्रमण का नाम भाव परावर्तन है।
नोट -
1. चूँकि क्षेत्र, काल भाव और भव - ये 4 परावर्तन द्रव्य परावर्तन में ही समाहित हो जाते हैं क्योंकि जो जीव द्रव्य परावर्तन करेगा, उसे क्षेत्र भी चाहिए एवं जिसे काल चाहिए, उसे भव और भाव भी चाहिए। इस प्रकार ये 4 परावर्तन एक द्रव्य मात्र में ही घटित हो जाते हैं और द्रव्य-परावर्तन का आधा का अर्थ है - अर्द्ध पुद्गल परावर्तन।
2. जो सम्यग्दर्शन से पतित नहीं होता, उसको उत्कृष्टतः 7 या 8 भवों का ग्रहण होता है और जघन्य से 2 या 3 भवों का। इतने भवों के बाद उसके संसार का उच्छेद हो जाता है। जो सम्यग्दर्शन से च्युत हो जाता है, उसके लिए भवों का कोई नियम नहीं है। (राजवार्तिक सूत्र /14/224)
3. दर्शन मोहनीय का क्षय हो जाने पर उसी भव में या तीसरे भव में अथवा मनुष्य/तिर्यंच की पूर्व में आयु बाँध ली हो तो भोगभूमि की अपेक्षा चौथे भव में सिद्धि प्राप्त हो जाती है एवं वे चौथे भव का उल्लंघन नहीं करते। औपशमिक या क्षयोपशमिक-सम्यक्त्व की भांति यह नाश को प्राप्त नहीं होता।
(गो. धी./जा.प्र..)
इति प्रथम गुणस्थान
क्रमशः
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
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