14 गुण स्थान (भाग - 31)

14 गुण स्थान (भाग - 31)

​​3. तीसरा गुणस्थान - मिश्र गुणस्थान (सम्यक् मिथ्यात्व)

जैसे दो चीज़ें दही और गुड़ को मिलाने से जो नया स्वाद आता है या हल्दी और चूने को मिलाने से जो नया रंग बनता है, उसी प्रकार मिश्र गुणस्थान में भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व, इन दोनों के मिलने से जो परिणाम होते हैं अथवा जो आत्मा के भाव होते हैं, उसे मिश्र या सम्यक् मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं।

कुछ सम्यक्त्व से लगाव और कुछ मिथ्यात्व की ओर झुकाव; वर्तमान के संस्कारों के कारण सम्यक्त्व से लगाव और अतीत के संस्कारों के कारण मिथ्यात्व के प्रति झुकाव होने लगता है। जैसे बहुत बड़े हॉल में एक छोटा-सा टिमटिमाता दीपक रख देने पर प्रकाश और अंधकार का धुंधलापन दिखाई पड़ता है तथा अंधकार और प्रकाश जैसी अवस्था में न पुस्तक पढ़ सकते हैं और न ही उसका लोप कर सकते हैं। पुस्तक दिखाई दे रही है पर अक्षर दिखाई नहीं दे रहे हैं। न इतना अंधकार है कि ठोकर खाकर गिर जाएं और न इतना प्रकाश है कि सुई में डोरा डाल सकें।

इस मिले-जुले परिणाम की अवस्था को मिश्र गुणस्थान कहा गया है।

इसी प्रकार जिसमें न पूर्ण सम्यक्त्व रूप परिणाम, न पूर्ण मिथ्यात्व रूप परिणाम पाए जाते हैं, उसे सम्यक्-मिथ्यात्व-गुणस्थान कहते हैं।

सम्यक्-मिथ्यादृष्टि जीव -

जीव के जिस गुणस्थान में सम्यक्त्व रूप और मिथ्यात्व रूप मिश्रित श्रद्धान पाया जाए, उसे सम्यक्-मिथ्यादृष्टि कहते हैं। सम्यक्त्व से गिरते समय अथवा मिथ्यात्व में चढ़ते समय (सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा) एक अंतर्मुहूर्त के लिए इस अवस्था का अनुभव/वेदन संभव है। सम्यक्-मिथ्यात्व कर्म के उदय से यह गुणस्थान बनता है। श्रद्धान और अश्रद्धात्मक भाव युगपत् रहने के कारण भी इसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं।

दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय - ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस जीव के समीचीनता और मिथ्यात्व दोनों प्रकार की दृष्टि होती है, उसको ही सम्यक् मिथ्यादृष्टि कहते हैं।

(धवला पुस्तक)

अथवा जात्यंतर (जाति से अनंतर) रूप सर्वघाती, सम्यक्-मिथ्यात्व-प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप/मिथ्यात्व रूप परिणाम न होकर जो मिश्र रूप परिणाम होते हैं, उसे तृतीय गुणस्थान या मिश्र गुणस्थान कहते हैं।

(गोम्मट सार जीव काण्ड मूल गाथा 21/46)

मिश्र गुणस्थान संबंधी कुछ नियम -

  1. इस में मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता।

  2. इससे न तो जीव सकल संयम प्राप्त कर सकता और न ही देश (आंशिक) संयम।

  3. सम्यक् मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्यात्व सहित मिथ्यात्व गुणस्थान को अथवा सम्यक्त्व सहित असंयत गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में गमन का अभाव है। (धवला पुस्तक)

  4. इस गुणस्थान में जीवों की मृत्यु नहीं होती। पहला या चौथा गुणस्थान प्राप्त करने के बाद ही मृत्यु होती है।

  5. इसमें किसी भी गति का आयु बंध नहीं होता।

  6. इसका समय मात्र अंतर्मुहूर्त है। इसके बाद नियम से पहले या चौथे गुणस्थान में गमन हो जाता है। अर्थात् जीव या तो पूर्णतया मिथ्यात्व में जाएगा या अविरत सम्यग्दृष्टि बन जाएगा।

  7. इसका सद्भाव संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव को ही संभव है। एकेन्द्रिय आदि असंज्ञी पर्यन्त के जीव इसको प्राप्त नहीं कर सकते।

  8. इसमें ज्ञान भी सम्यक् और मिथ्या; उभय रूप होते हैं।

  9. इसमें श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों युगपत् विद्यमान होते हैं।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।

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