तत्त्वार्थसूत्र - अष्टम अध्याय (कर्म-बन्ध) - (सूत्र 11) - भाग - 3

‘तत्त्वार्थसूत्र’

‘आचार्य उमास्वामी-प्रणीत’

(परम पूज्य उपाध्याय श्री श्रुतसागर जी महाराज द्वारा ‘तत्त्वार्थसूत्र’ की प्रश्नोत्तर शैली में की गई व्याख्या के आधार पर)

अष्टम अध्याय (कर्म-बन्ध)

सूत्र 11 (भाग - 3)

सूत्र 11. गति-जाति-शरीरांगोपांग-निर्माण-बंधन-संघात-संस्थान- संहनन-स्पर्श-रस-गंध-वर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघात-परघातातपोद्योतोच्छ्वास-विहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्ति-स्थिरादेय-यशःकीर्तिः सेतराणि तीर्थंकरत्व च।।11।।

अर्थ - गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आातप, उद्योत, उच्छ्वास और विहायोगति तथा इन सब की प्रतिपक्षभूत-प्रकृतियों के साथ अर्थात् साधारण शरीर और प्रत्येकशरीर, स्थावर और त्रस, दुर्भग और सुभग, दुःस्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयशःकीर्ति और यशःकीर्ति एवं तीर्थंकरत्व - ये तिरानवे (93) नामकर्म के भेद हैं।

प्र. 208. ‘आनुपूर्व्य-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से विग्रह गति में आत्मा के प्रदेश मरण से पहले के शरीर के आकार के हों, उसे ‘आनुपूर्व्य-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 209. ‘आनुपूर्व्य-नामकर्म’ के कितने भेद हैं और कौन-कौन से?

उत्तर - ‘आनुपूर्व्य-नामकर्म’ के चार भेद हैं - नरकगत्यानुपूर्व्य, तिर्यगत्यानुपूर्व्य, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, देवगत्यानुपूर्व्य।

प्र. 210. ‘नरकगत्यानुपूर्व्य-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस समय मनुष्य या तिर्यंच मरकर नरक गति की ओर जाते हैं, तो मार्ग में उनकी आत्मा के प्रदेशों का आकार वैसा ही बना रहता है, जैसा उनका मरण से पूर्व शरीर का आकार था; वह ‘नरकगत्यानुपूर्व्य-नामकर्म’ है।

प्र. 211. ‘आनुपूर्व्य-नामकर्म’ का उदय किस गति में होता है?

उत्तर - इस कर्म का उदय विग्रह-गति में होता है।

प्र. 212. ‘अगुरुलघु-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शरीर न तो लोहे के गोले के समान भारी हो और न आक की रूई की तरह हल्का हो, उसे ‘अगुरुलघु-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 213. ‘उपघात-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से अपने ही घात करने वाले अंग-उपांग या वात-पित्त आदि हों जैसे बारहसिंगा के सींग आदि, उसे ‘उपघात-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 214. ‘परघात-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से दूसरों का घात करने वाले अंग-उपांग हों जैसे पैने सींग, नख, डंक आदि, उसे ‘परघात-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 215. ‘आतप-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से आतपकारी शरीर हो, उसे ‘आतप-नामकर्म’ कहते हैं। इनका उदय सूर्य के विमानों में स्थित बादर-पर्याप्त-पृथ्वीकायिक जीवों के होता है, अन्य के नहीं। जैसे - सूर्य की किरणें।

प्र. 216. ‘उद्योत-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शीतल-चमकरूप शरीर हो, उसे ‘उद्योत-नामकर्म’ कहते हैं। इनका उदय चन्द्र-विमानों में स्थित बादर-पर्याप्त-पृथ्वीकायिक जीवों के एवं जुगनू, सिंह, बिल्ली आदि के होता है, अन्य के नहीं।

प्र. 217. ‘उच्छवास-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से ‘श्वास-उच्छवास’ की क्रिया होती है, उसे ‘उच्छवास-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 218. ‘विहायोगति-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से विहाय (आकाश) में गमन हो, उसे ‘विहायोगति-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 219. ‘विहायोगति-नामकर्म’ के कितने भेद हैं और कौन-कौन से?

उत्तर - ‘विहायोगति-नामकर्म’ के दो भेद हैं - प्रशस्त और अप्रशस्त।

प्र. 220. ‘प्रशस्त-विहायोगति-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - हाथी, बैल आदि की सुन्दर गति को ‘प्रशस्त-विहायोगति-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 221. ‘अप्रशस्त-विहायोगति-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - ऊँट, गधे आदि की कुटिल गति को ‘अप्रशस्त-विहायोगति-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 222. ‘प्रत्येकशरीर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक जीव हो, उसे ‘प्रत्येकशरीर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 223. ‘साधारणशरीर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से एक शरीर में अनेक जीव हों, उसे ‘साधारणशरीर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 224. ‘त्रस-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रिय आदि जीवों में जन्म हो, उसे ‘त्रस-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 225. ‘स्थावर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से एकेन्द्रियों में जन्म हो, उसे ‘स्थावर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 226. ‘सुभग-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से दूसरे जीव अपने से प्रीति करें, उसे ‘सुभग-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 227. ‘दुर्भग-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से कुरूप होने के कारण दूसरे जीव अपने से प्रीति न करें, उसे ‘दुर्भग-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 228. ‘सुस्वर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से स्वर अच्छा हो जो दूसरों को प्रिय लगे, उसे ‘सुस्वर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 229. ‘दुस्वर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से अप्रिय स्वर हो, उसे ‘दुस्वर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 230. ‘शुभ-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों, उसे ‘शुभ-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 231. ‘अशुभ-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों, उसे ‘अशुभ-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 232. ‘सूक्ष्म-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर हो जो न स्वयं दूसरे शरीर से रुके और न दूसरे को रोक सके, उसे ‘सूक्ष्म-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 233. ‘बादर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से दूसरे शरीर को रोकने योग्य और दूसरे से रुकने योग्य स्थूल शरीर हो, उसे ‘बादर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 234. ‘पर्याप्ति-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से अपने-अपने योग्य आहार आदि छःहों पर्याप्तियों की पूर्णता हो, उसे ‘पर्याप्ति-नामकर्म’ कहते हैं। इसके छः भेद हैं - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मनः पर्याप्ति।

प्र. 235. ‘अपर्याप्ति-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता नहीं होती और मरण हो जाए, उसे ‘अपर्याप्ति-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 236. ‘स्थिर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शरीर के धातु व उपधातु अपने-अपने नियत स्थान पर हों, उसे ‘स्थिर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 237. ‘अस्थिर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शरीर के धातु व उपधातु अपने-अपने नियत स्थान पर न हों, ज़रा-सी सर्दी-गर्मी लग जाने पर शरीर म्लान हो जाता हो, उसे ‘अस्थिर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 238. ‘आदेय-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शरीर प्रभा सहित हो, उसे ‘आदेय-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 239. ‘अनादेय-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से शरीर प्रभा रहित हो, उसे ‘अनादेय-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 240. ‘यशःकीर्ति-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से संसार में जीव का यश फैले, उसे ‘यशःकीर्ति-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 241. ‘अयशःकीर्ति-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से संसार में जीव का अपयश फैले, उसे ‘अयशःकीर्ति-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 242. ‘तीर्थंकर-नामकर्म’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से अचिन्त्य-विभूति-सहित अरिहंत-पद के साथ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन हो, उसे ‘तीर्थंकर-नामकर्म’ कहते हैं।

प्र. 243. प्राणापान-पर्याप्ति से उच्छवास प्रकट हो जाता है, फिर ‘श्वासोच्छवास-प्रकृति’ को अलग क्यों लिया गया है?

उत्तर - श्वासोच्छवास या प्राणापान-पर्याप्ति कारण-रूप है और ‘श्वासोच्छवास-प्रकृति’ कार्य-रूप है।

प्र. 244. तैजस-शरीर से ही प्रभा हो जाती है, फिर ‘आदेय-प्रकृति’ को अलग क्यों लिया गया है?

उत्तर - तैजस-शरीर सभी संसारी जीवों के होता है, किन्तु सभी जीवों में समान प्रभा देखने में नहीं आती। इसलिए विशेष प्रभा ‘आदेय-नामकर्म’ से होती है।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।

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