नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 1)
नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 1)
नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी के पूर्वभव
भगवान पुष्पदन्त जी - विदेहक्षेत्र में महापद्म राजा
जैसे जम्बूद्वीप में विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश और पुण्डरीकिणी नगरी है, उसी प्रकार पुष्करद्वीप के पूर्वमेरु के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश और पुण्डरीकिणी नगरी है। वहाँ भगवान पुष्पदन्त जी पूर्वभव में ‘महापद्म’ नाम के राजा थे। जिस प्रकार गोपाल अपनी गायों का पालन करता है, उसी प्रकार राजा महापद्म अपनी प्रजा का वात्सल्यपूर्वक पालन करते थे। उनके राज्य में पृथ्वी भी प्रसन्न होकर श्रेष्ठ रत्न और अन्न आदि उत्पन्न करती थी। श्रावक उत्तम व्रतों का पालन करते थे। मुनियों के सत्संग से उनका जीवन सदाचारी रहता था। राजा-प्रजा का सम्बन्ध भी आदर्शरूप था।
इस प्रकार महाराजा महापद्म राजकाज के साथ-साथ सम्यक्त्व सहित मोक्षमार्ग में रमण करते थे। राजा का जीवन धर्ममय और पुण्ययोग से आप्लावित था। एक बार वे राज्यसभा में बैठे थे, वहाँ वनपाल ने आकर शुभ समाचार दिया - हे स्वामी! अपने मनोहर उद्यान में सर्व जीवों के हितकारी जिनराज पधारे हैं। साथ में चतुर्विध संघ है। उनके आगमन से उद्यान में फूल खिल गए हैं और पक्षियों में भी प्रसन्नता का भाव है।
प्रभु के पधारने की बात सुन कर राजा को अति प्रसन्नता हुई। वे धूमधाम से उल्लास सहित जिनवंदना करने चले। प्रभु की वन्दना करके वे उपदेश सुनने बैठ गए।
जिनराज ने बताया - आत्मा अज्ञानवश स्वयं ही भवदुःख उत्पन्न करता है और आत्मज्ञान द्वारा स्वयं ही मोक्षसुख प्राप्त करता है।
भवदुःख और मोक्षसुख व उनके कारणों का वर्णन सुन कर राजा का चित्त भवदुःख से उदासीन और मोक्षसुख के प्रति उत्साहित हो उठा। वैराग्यपूर्वक राजा विचारने लगे - अनादिकाल से मिथ्याभावों से दूषित आत्मा स्वयं अपने ही भावों के द्वारा अपने को उन्मत्त की भांति भववन में भ्रमाता है और दुःखी होता है। ऐसी अविचारी चेष्टाएँ करता है, मानो उसके पीछे कोई भूत लगा हो। विषय-कषायों रूप अहितकर कार्यों को हितकर मान लेता है और मोक्ष के मार्ग से पथभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संसार से भयभीत होकर मैं उससे छुटने के लिए अब मोक्ष का उपाय करूँगा।
ऐसा विचार कर अपनी पुण्डरीकिणी नगरी का राज्य अपने पुत्र को सौंप कर महाराजा महापद्म ने सर्व जीवों के हितकारी जिनराज के चरणों में मुनिदीक्षा धारण की। वे मुनि होकर आत्मध्यान करने लगे। उन्हें 12 अंगों का ज्ञान प्रगट हुआ और दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हुआ।
अंत में समाधिमरण करके ‘प्राणत स्वर्ग’ में ‘अहमिन्द्र’ हुए। वहाँ 20 सागरोपम वर्ष तक दिव्य वैभव का सुख भोगा। तत्पश्चात् उन असार सुखों को छोड़ कर अतीन्द्रिय मोक्ष सुख की साधना के लिए वे भरतक्षेत्र में नौवें तीर्थंकर रूप में अवतरित हुए।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री पुष्पदन्त जिनेन्द्राय नमः।।
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