नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 2)

नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 2)

तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त का अवतरण

उस समय भरत क्षेत्र में काकन्दी नगरी (किष्किन्धा पुरी) में सुग्रीव राजा राज्य करते थे। उनकी महारानी जयरामा के उदर में तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त का जीव अवतरित होने वाला है; ऐसा जानकर देव उनके आँगन में 6 मास पहले ही रत्नवृष्टि करने लगे। फाल्गुन कृष्णा नवमी की रात के पिछले प्रहर में माता ने 16 मंगल स्वप्न देखे और ‘अहमिन्द्र’ का जीव उनकी कुक्षि में अवतरित हुआ। महाराजा सुग्रीव ने अवधिज्ञान से जान कर कहा कि हे देवी! तुम्हारे उदर में जगत्पूज्य आत्मा का आगमन हुआ है। अपना वह पुत्र सर्वज्ञ-तीर्थंकर होकर जगत का कल्याण करेगा।

माता को हर्ष के कारण असीम तृप्ति का अनुभव हुआ। स्वर्गलोक से देवियाँ आकर माता की सेवा करती थी।

मँगसिर शुक्ला प्रतिपदा के दिन महारानी जयरामा ने अति तेजस्वी, तीन ज्ञान के धारी पुत्र को जन्म दिया। उनके जन्म से तीनों लोक में हर्ष छा गया। देवलोक के दिव्य वाद्य अपने आप बजने लगे। उनकी दिव्य घोष की ध्वनि सुन कर सारा देवलोक प्रभु के जन्मकल्याणक का महोत्सव मनाने भूलोक पर आ पहुँचा।

पंचम समुद्र क्ष्ीरसागर के दुग्ध के समान उज्ज्वल जल से इन्द्र ने प्रभु का जन्माभिषेक किया। जन्माभिषेक के समय भगवान का अति सुन्दर रूप देख कर मुग्ध हुए इन्द्र ने एक हज़ार नेत्र बना कर उस दिव्य रूप का अवलोकन करते हुए वहीं मेरुपर्वत पर ताण्डव नृत्य किया और बाल-प्रभु को ‘पुष्पदन्त’ नाम से सम्बोधित करके स्तुति की।

आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभ जी के मोक्षगमन के पश्चात् 90 करोड़ सागरोपम वर्ष के अंतर से नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त हुए। उनकी आयु 2 लाख पूर्व वर्ष थी। उनका चिह्न ‘मगरमच्छ’ था।

स्वर्ग के देव बालक बन कर उनके साथ क्रीड़ा करने आते थे। भवनवासी देवियाँ उन्हें गोद में लेकर खिलाती थी और पालने में झुलाती थी। इस प्रकार बाल-तीर्थंकर के स्पर्श से वे स्वयं को धन्य मानती थी।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री पुष्पदन्त जिनेन्द्राय नमः।।

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