नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 3)
नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 3)
भगवान पुष्पदन्त का वैराग्य और जिनदीक्षा
अपनी माता महारानी जयरामा के साथ आनन्द-किल्लोल में समय बिताते हुए पुष्पदन्त कुमार ने बचपन छोड़ कर युवावस्था में प्रवेश किया। कामदेव उनकी सेवा में उपस्थित था। अनेक सुन्दर राजकन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ। महाराजा पुष्पदन्त तो महापुण्यवान थे ही, वे स्त्रियाँ भी महापुण्यवान थी, जो मोक्षसुख के अतिनिकट भगवान पुष्पदन्त का सान्निध्य प्राप्त कर रही थी। महाराजा पुष्पदन्त को उन पुण्यजनित अनेक बार भोगे गए उत्तम भोग्य पदार्थों को भोगने में कोई नयापन नहीं लगता था। वे तो अनंत बार भोगे गए जूठन के समान ही लगते थे।
प्रभु के पुण्यफल को देख कर नास्तिक लोग भी मानने लगे थे कि वर्तमान भव की भोग्य सामग्री अवश्य ही पूर्वभव में किए गए पुण्य-पाप का ही फल है। जो पहले आत्मा-परमात्मा को नहीं मानते थे और पाप के भय से रहित होकर पापमय जीवन में स्वच्छन्द प्रवर्तन करते थे, वे भी आस्तिक बन गए और पाप से डरकर आत्मसाधना करने लगे।
महाराजा पुष्पदन्त को राजभोगों के बीच अलिप्त रहते हुए ज्ञानचेतना सहित दीर्घकाल बीत गया। एक बार मंगसिर शुक्ला प्रतिपदा के दिन वे राजमहल की छत पर आत्मचिंतन कर रहे थे कि अचानक आकाश में उल्कापात हुआ। तीव्र गर्जना के साथ बिजली गिरी। बिजली की चमक देखते ही उन्हें वैराग्य जाग उठा कि ‘अरे! यह मात्र बिजली नहीं हैं। यह तो मेरे चारित्रमोह रूपी अंधकार को हटाने वाला महान् दीपक है।’
प्रभु की चेतना जागृत हो गई। मात्र एक बिजली की क्षणभंगुर चमक को देख कर वे महान् साम्राज्य, राजभोग और रानियों को छोड़ने के लिए तत्पर हो गए, दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय लेकर वैराग्य भावनाओं का चिंतन करने लगे।
‘अरे! अनन्त बार अहमिन्द्र का दिव्य वैभव पाकर भी यह जीव सन्तुष्ट नहीं हुआ, तो इस मनुष्य लोक के वैभव में तृप्ति कैसे हो सकती है? चैतन्य से प्राप्त हुए वैभव के सुख के सिवा जीव को अन्यत्र कहीं तृप्ति नहीं मिल सकती। बाह्यसुखों का संयोग तो बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है। चैतन्य का स्वाभाविक सुख ही संयोग रहित सच्चा और शाश्वत सुख है। ये सांसारिक विषय तो इन्द्रजाल के समान छलने वाले हैं। उनमें जीव असत् पदार्थ को सत् मान बैठता है। इस संसार में किसी वस्तु का संयोग न तो स्थिर है और न सुख देने वाला।
वास्तव में जगत मुझसे भिन्न है और मैं जगत से भिन्न हूँ। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि शरीर से भिन्न आत्मा का ऐसा भेदज्ञान होने पर भी मैं अभी तक मूर्च्छित होकर शरीर के भोगों में लिप्त रहा। कषायों के दुःखदायी परभावों से भरे हुए इस संसार-समुद्र से निकल कर अब मैं सिद्धपद की साधना करूँगा।’
ऐसा निश्चय करते ही लौकान्तिक देवों ने आकर स्तुतिपूर्वक प्रभु के वैराग्य की प्रशंसा की और इन्द्रों ने आकर दीक्षा कल्याणक का भव्य महोत्सव किया। ‘सूर्यप्रभा’ नामक देवशिविका में प्रभु आरूढ़ हुए। प्रभु के साथ अनेक भव्य जीवों का चित्त भी संसार से विरक्त हो गया।
मंगसिर शुक्ला प्रतिपदा के सांयकाल एक हज़ार राजाओं के साथ भगवान पुष्पदन्त ने दीक्षावन में दिगम्बर-दीक्षा ले ली।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री पुष्पदन्त जिनेन्द्राय नमः।।
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