नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 4)

नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 4)

भगवान पुष्पदन्त का ज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक

भगवान पुष्पदन्त दिगम्बर-दीक्षा ले कर मुनि हुए और आत्मध्यान में शुद्धोपयोग द्वारा वीतरागी सुख का अनुभव करने लगे। उसी समय मनःपर्यय ज्ञान प्रगट हुआ। परन्तु उनका उपयोग मनःपर्यय ज्ञान में न लग कर शुद्ध आत्मा की अनुभूति में ही लगा रहा। अनेक महान् ऋद्धियाँ प्रगट हुई, पर अपनी चैतन्य ऋद्धि में निमग्न प्रभु को बाह्य ऋद्धियों से कोई प्रयोजन नहीं था।

पुष्पदन्त मुनिराज ने प्रथम पारणा शैलपुरी नगरी के राजा पुष्पमित्र के घर किया। वहाँ देवों द्वारा पंचाश्चर्य प्रगट हुए। पुष्पदन्त मुनिराज ने 4 वर्ष तक मौन रह कर विहार किया। फिर काकन्दी नगरी के दीक्षावन में पधारे। वहाँ आत्मध्यान में एकाग्र होकर घातिकर्मों की बड़ी सेना को एकमात्र शुद्धोपयोग शस्त्र द्वारा नष्ट कर दिया और अपना अनन्त चतुष्टय साम्राज्य प्राप्त करके अरिहन्त तीर्थंकर परमात्मा बन गए।

देवों ने आकर दिव्य शोभायुक्त समवशरण की रचना की। उस समवशरण में प्रभु की दिव्य ध्वनि खिरने लगी। उस दिव्य ध्वनि में सर्वतत्त्व का स्वरूप समझ कर लाखों भव्य जीवों ने आनन्द पूर्वक रत्नत्रय अंगीकार किए। उस धर्मसभा में 7000 केवलज्ञानी और 1500 श्रुतकेवली थे। सप्तऋद्धियों के धारी ‘विदर्भ’ आदि 88 गणधर थे। 8000 अवधिज्ञानी, 7500 मनःपर्यय ज्ञानी मुनिवर थे। कुल 2 लाख मुनि, 4 लाख आर्यिकाएँ, 2 लाख श्रावक और 5 लाख श्राविकाएँ थी। उनके समवशरण में असंख्य देव और तिर्यंच भी प्रभु की देशना सुनकर धर्म को प्राप्त हुए।

जो जीव अपने हृदय में आपके द्वारा बताए गए वीतराग धर्म को धारण करता है, वचन में आपके उपदेश को बसा लेता है और जिसके शरीर की प्रवृत्ति में आपके समान प्रवृत्ति बस जाती है अर्थात् जो अपने मन-वचन-काय से आपके मार्ग मे प्रवर्तन करता है, वह प्राणी आपके समान होकर परम आनन्द को प्राप्त करता है।

सर्वज्ञ भगवान पुष्पदन्त ने लाखों वर्ष तक भरतक्षेत्र में विहार किया। वह धर्मकाल था। भव्य जीवों के लिए मोक्ष का राजमार्ग खुला हुआ था और रत्नत्रय द्वारा भव्य जीवों का समूह आनन्दपूर्वक वीतराग मार्ग पर चल कर मोक्षपुरी जा रहे थे।

अंत में भगवान के मोक्षगमन का समय आ पहुँचा। वे अनंत तीर्थंकरों की मोक्षभूमि सम्मेदशिखर पर पधारे। वहाँ ‘सुप्रभ’ नामक टोंक पर तीसरे-चौथे शुक्लध्यान द्वारा योगनिरोध करके आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन ऊर्ध्वगमन करके सिद्धालय में पधारे। वे आज भी वहाँ विराज रहे हैं ... उन्हें हमारा नमस्कार हो।

।।ओऽम् श्री पुष्पदन्त जिनेन्द्राय नमः।।

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