सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 2)
सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 2)
वाराणसी नगरी में तीर्थंकर-अवतार
आज से असंख्यात वर्ष पहले काशी देश में गंगा नदी के किनारे वाराणसी (काशी) नगरी में महाराजा सुप्रतिष्ठ राज्य करते थे। उनकी महारानी पृथिवीसेना महान् रूप-गुण व सौभाग्य से युक्त थी। वे इसलिए भी महान् थी कि उन्हें एक जगत्पूज्य तीर्थंकर की जननी बनने का सौभाग्य मिलने जा रहा था।
भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को उन्होंने सुखनिद्रा में 16 मंगल स्वप्न देखे और एक सफेद हाथी को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र का जीव उनकी कुक्षि में तीर्थंकर के रूप में अवतरित हुआ। तीर्थंकर आत्मा के समागम से वे किसी अनुपम सुख का अनुभव कर रही थी। गर्भावस्था होने पर भी उन्हें किसी प्रकार की कुरूपता या कष्ट का अनुभव नहीं हो रहा था।
उनके आँगन में प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा होती थी। भवनवासी देवियाँ माता की सेवा करती और अनेक प्रकार की धर्मचर्चा करके उन्हें प्रमुदित करती। तीर्थंकरत्व और ज्ञानचेतना के प्रताप से उन्होंने गर्भावस्था के सवा नौ महीने सुखपूर्वक व्यतीत किए।
ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी की सुप्रभात तीनों लोक में मंगल बधाई का संदेश ले कर आई, जब माता पृथिवीसेना ने सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ को जन्म दिया। छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ के मोक्षगमन के नौ हज़ार करोड़ सागर वर्ष के उपरान्त तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ हुए। इन्द्रों ने वाराणसी नगरी में आकर प्रभु के जन्म का भव्य महोत्सव मनाया। सुपार्श्वकुमार की आयु बीस लाख पूर्व वर्ष थी। उनके शरीर की ऊँचाई 200 धनुष थी और उनका चिह्न ‘स्वस्तिक’ था।
उन बाल तीर्थंकर की अद्भुत चेष्टाएं देख कर परिवाजन व सारी प्रजा तृप्ति का अनुभव करते थे। स्वर्गलोक के देव भी बालक का रूप धारण करके उनके साथ क्रीड़ा करके आह्लादित होते थे। वे स्वर्ग के उत्तमोत्तम पदार्थ बालक की सेवा में रखकर आनन्द का अनुभव करते थे। यह उनके पुण्योदय का ही फल था, परन्तु भगवान तो आत्मा के साधक थे। अतः उन्हें इन इन्द्रभोगों की कोई आवश्यकता नहीं थी।
वाराणसी नगरी में महाराजा सुप्रतिष्ठ का महल गंगा नदी के किनारे पर था। वहाँ की शोभा अति सुन्दर थी। राजकुमार सुपार्श्व उस विशाल गंगा नदी में जलविहार करते थे। एक बार वे नौका विहार का आनन्द ले रहे थे, उसी समय एक अद्भुत घटना हुई।
एक बड़ा मगरमच्छ उनकी नौका के पीछे-पीछे आ रहा था। नौका तक पहुँचने के लिए वह उछल रहा था और लोग उसे देखकर भयभीत हो रहे थे कि कहीं यह नौका को उलट ही न दे। प्रभु ने भी उसे देखा, परन्तु वे निर्भयता से नौकाविहार का आनन्द लेते रहे, मानो मगरमच्छ के अंतर का रहस्य वे जान गए हों। थोड़ी ही देर में मगरमच्छ ने नौका के निकट पहुँच कर पानी में डुबकी लगाई और दूसरे ही क्षण वह नौका से आगे निकल कर नौका के सामने आ गया। सब आश्चर्य से देख रहे थे। तभी उस मगरमच्छ ने सिर ऊँचा करके अपने अगले दोनों पैर पानी से बाहर निकाले। ऐसा लग रहा था कि वह अपने दोनों हाथ जोड़ कर प्रभु को भक्तिभाव से वंदन कर रहा हो। उसने नौका को कोई हानि नहीं पहुँचाई।
प्रभु ने प्रेम भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा तो वहाँ मगरमच्छ के स्थान पर एक देव दिखाई दिया जो मगरमच्छ का रूप धारण करके प्रभु के साथ क्रीड़ा करने और उनके दर्शन करने आया था।
अहो देव! तिर्यंच भी आपके दर्शन से आनन्द प्राप्त करते हैं, तो फिर हम जैसे मनुष्यों को आपके दर्शन का अतीन्द्रिय आनन्द क्यों नहीं प्राप्त होगा?
क्रमशः
।।ओऽम् श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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