दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 1)

दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 1)

दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी के पूर्वभव

भगवान शीतलनाथ - पूर्वभव में सुसीमा नगरी में राजा पद्मगुल्म

नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी के पश्चात् लाखों वर्षों तक जो धर्म का विच्छेद हुआ, वह भगवान शीतलनाथ के अवतार से दूर हुआ।

पुष्करद्वीप के पूर्वभाग में मंदारगिरी नामक मेरुपर्वत है। उसकी पूर्वदिशा के विदेह क्षेत्र में सीमा नदी के किनारे वत्सदेश है। उसमें सुसीमा नगरी में राजा पद्मगुल्म राज्य करते थे। राजवैभव के बीच रहते हुए भी वे आत्मज्ञानी और वैरागी थे। दोनों परिणति में एक साथ प्रवर्तमान होने पर भी भेदज्ञान की शक्ति के कारण उनकी आत्मा मोक्षपुरी की ओर गमन कर रही थी। अब मोक्षपुरी पहुँचने में केवल एक भव शेष था।

एक बार राजा पद्मगुल्म वसन्त ऋतु का आगमन होने पर फल और पुष्पों से आच्छादित सुन्दर उद्यान में अपनी रानियों के साथ वसन्तोत्सव मनाने गए। वहाँ दो महीने का समय वसन्त-क्रीड़ाओं में कब बीत गया और कब ग्रीष्म ऋतु आ गई, पता ही नहीं चला। वसन्त ऋतु के अल्पकाल का आभास होने पर उन्हें संसार की क्षणभंगुरता का अहसास हुआ। उनका चित्त संसार के भोगों से उदास हो गया - अरे! यह सब भोग-सामग्री भी वसन्त ऋतु की तरह क्षणभंगुर है। कोई भी संयोग जीव के साथ सदा के लिए नहीं रहता। ऐसे अध्रुव संयोगों में आसक्त रहना मुझे शोभा नहीं देता।

इस प्रकार संसार से विरक्त होकर राजा पद्मगुल्म ने ‘आनन्द मुनिराज’ के निकट जिनदीक्षा अंगीकार कर ली। रत्नत्रय सहित तप-आराधना करते-करते उनको 11 अंग और 14 पूर्व का ज्ञान हुआ। सम्यक्त्व की विशुद्धि के साथ दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर उन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ। एक ओर निरन्तर तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो रहा था और दूसरी ओर रत्नत्रय की शुद्धि द्वारा वे प्रतिक्षण मोक्ष को साध रहे थे। ऐसी द्विविध धारा में मोक्षधारा प्रबल और बंधधारा क्षीण होती जा रही थी।

इस प्रकार मुनिराज पद्मगुल्म आराधक भाव सहित आयु पूर्ण करके 15वें ‘आरण’ स्वर्ग में इन्द्ररूप में उत्पन्न हुए।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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