दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 3)

दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 3)

भगवान शीतलनाथ का वैराग्य और दीक्षा

भगवान शीतलनाथ को राज्यभोग करते हुए 50 हज़ार पूर्व वर्ष बीत चुके थे। अब उनको संसार में केवल 25 हज़ार पूर्व वर्ष ही रहना शेष था। भव के अंत की तैयारी थी। तभी एक वैराग्यप्रेरक घटना हुई।

एक बार भगवान शीतलनाथ प्रातः वन-विहार करने गए थे। चारों ओर फल-फूलों से प्रफुल्लित वातावरण था। उनकी अद्भुत शोभा निहारते हुए महाराज शीतलनाथ प्रसन्नता से वन-विहार कर रहे थे। कुछ समय पश्चात् लौटते हुए उन्होंने देखा कि जो ओस की बूँदें कुछ समय पहले मोती के समान चमक रही थी, वे सूर्य के उदय होते ही नष्ट हो चुकी थी। प्रभात का आकर्षण भी पहले जैसा आनन्ददायक नहीं रहा था। प्रकृति के सौन्दर्य की अस्थिरता को देख कर महाराज शीतलनाथ को वैराग्य जागृत हो गया।

वे चिन्तन करने लगे - अरे! यह मनुष्य जीवन भी ओस-बिन्दुओं की तरह क्षणभंगुर है। उनकी शोभा और सौन्दर्य क्षणभर में विलीन हो जाते हैं। संसार के सभी पदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहे हैं। स्थिर तो केवल अपनी असंयोगी आत्मा ही है। कर्म भले ही पुण्य रूप हों या पाप रूप, उसके द्वारा जीव को शाश्वत सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त हुए विषयों में यदि सुख होता, तो मुझे इतनी उत्कृष्ट भोग-सामग्री प्राप्त होने पर भी मेरा मन सन्तुष्ट क्यों नहीं है?

वास्तव में जिन विषय-भोगों के सुख को जगत सच्चा सुख मानता है, वह मिथ्या सुख है। विषयों के प्रति उदासीनता और निज चैतन्य स्वरूप में रति ही सच्चा सुख है। जहाँ मोह है, वहाँ विषयों के प्रति उदासीनता और निज चैतन्य स्वरूप में लीनता हो ही नहीं सकती। इसलिए मैं मोह का सर्वथा नाश करके शुद्धात्मा के ध्यान द्वारा केवलज्ञान प्रगट करूँगा और मोक्ष को प्राप्त करूँगा।

महाराज शीतलनाथ को वैराग्य-चिन्तन करते हुए पूर्वभव का जातिस्मरण हुआ कि मुझे पूर्वभव में पद्मगुल्म राजा की पर्याय में ऋतु का परिवर्तन देख कर ही वैराग्य हुआ था।

ब्रह्मलोक से लौकान्तिक देव भी प्रभु की दीक्षा का अवसर जानकर वहाँ आए और उनके वैराग्य की प्रशंसा की। उसी समय इन्द्र ‘शुक्रप्रभा’ नाम की पालकी ले कर आ पहुँचे। उसमें आरूढ़ होकर विरागी प्रभु ने संसार का त्याग करके मोक्ष की साधना करने के लिए वन की ओर प्रयाण किया। अपने जन्म दिवस, माघ कृष्णा द्वादशी के दिन शीतलनाथ प्रभु ने एक हज़ार राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। अंतरंग और बाह्य सभी परिग्रहों को छोड़ कर शुद्ध हुए वे प्रभु आत्मध्यान में लीन हुए।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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