ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 1)

ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 1)

भगवान श्रेयांसनाथ जी के पूर्वभव

भगवान श्रेयांसनाथ - नलिनप्रभ राजा

तीसरे पुष्कर द्वीप के पूर्वविदेह में क्षेमपुर नगर है। महाराजा नलिनप्रभ वहाँ राज्य करते थे। वे जैन धर्म के प्रेमी तथा आत्मस्वरूप के ज्ञाता थे। धर्म, अर्थ, काम के साथ-साथ मोक्ष पुरुषार्थ भी निरन्तर चल रहा था। उनका जीवन एक आदर्श श्रावक के समान उज्ज्वल था।

एक बार वनमाली ने राजा को सूचना दी कि आपके आम्रवृक्षों से सुशोभित उद्यान में भगवान अनन्त जिनेन्द्र का पदार्पण हुआ है। सभी आम्रवृक्ष हज़ारों फलों से सुशोभित होकर झुक गए हैं। पक्षी भी ख़ुशी से कलरव करने लगे हैं।

राजा अत्यन्त हर्ष विभोर होकर तपोवन में प्रभु के दर्शन करने गये और उनके धर्मोपदेश से उनकी आत्मा प्रसन्न हो गई। उनके हृदय में वैराग्य जागृत हो गया और वे जिनचरणों में दीक्षा लेकर मुनि हो गए। उन्हें 11 अंग का ज्ञान उदित हुआ और रत्नत्रय की शुद्धिपूर्वक आराधना करके, दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ।

वे नलिनप्रभ मुनिराज विशुद्ध चारित्र का पालन करते हुए, आयु पूर्ण होने पर समाधिमरण करके सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हुए। वहाँ उनकी आयु 22 सागर थी। वे उस आश्चर्यकारी वैभव को असंख्यात वर्ष तक भोगते हुए भी सम्यक्त्व के प्रताप से निज चैतन्य की महिमा को क्षणमात्र भी नहीं भूले। वे चैतन्य के वीतरागी सुख के सामने स्वर्गलोक के उत्तम सुखों को भी दुःख व बन्धन का कारण ही समझते थे।

अंत में स्वर्ग के दिव्य सुखों को पराधीनता का कारण मान कर वे मोक्षसाधना हेतु स्वर्गपुरी को छोड़ कर मनुष्यलोक में आए।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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