ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 2)

ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 2)

भगवान श्रेयांसनाथ जी का काशी में अवतार

भरत क्षेत्र की रमणीय नगरी काशी में अनेक महापुरुष हुए। उसी के निकट सिंहपुर नामक सुन्दर नगरी थी। वर्तमान में उसे ‘सारनाथ’ कहते हैं। वहाँ इक्ष्वाकुवंशी राजा विष्णु राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुनन्दा था। उन सुनन्दा माता के गर्भ में सोलह मंगल स्वप्न द्वारा पूर्व संकेत देकर ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी को भावी तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ का जीव अवतरित हुआ। तीन ज्ञान के धारी और तीन लोक के नाथ तीर्थंकर का अवतार होने से तीनों लोक के जीव हर्षित हो गए।

सवा नौ मास बीतने पर फाल्गुन कृष्णा एकादशी को भरतक्षेत्र में ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी का जन्म हुआ। इन्द्रों ने आनन्दपूर्वक धूमधाम से प्रभु का दिव्य जन्मोत्सव मनाया। उनसे पूर्व भरत क्षेत्र में अनेक वर्षों तक जैन धर्म की धारा विच्छिन्न हो गई थी जो पुनः प्रवाहित होने लगी। इन्द्रों ने उन्हें ‘श्रेयांसनाथ’ नाम देकर जीवों का श्रेय प्रारम्भ कर दिया था। उनके चरण में ‘गेंडा’ का चिह्न था। जिस प्रकार गेंडा का शरीर शस्त्रों से नहीं बिंधता, उसी प्रकार भगवान श्रेयांसनाथ के अनेकान्त शासन को किसी एकान्तवाद के कुचक्र से नहीं भेदा जा सकता। आप जीवों के हितकारक श्रेयमार्ग के रक्षक व पोषक हैं, इसलिए आप वास्तव में ‘श्रेयांसनाथ’ हैं।

उनकी बाल-क्रीड़ाओं को देख कर काशी के प्रजाजनों का हृदय आनन्द से भर जाता था और वे कहते कि जहाँ ऐसे महात्मा प्रभु विचरण करते हैं, वह देश धन्य है। हमारा जीवन धन्य है और हमारे नेत्र सफल हुए हैं जो हम इन नेत्रों से भगवान के दर्शन कर रहे हैं। उनके साथ दो शब्द बोल कर भी वे परम आनन्द से उनकी जय-जयकार करने लगते थे। जब सुनन्दा माता उस जयघोष को सुन कर झरोखे में आती तो प्रजाजन ‘सुनन्दा माता की जय’ के उद्घोष से आकाश को गुंजायमान करने लगते।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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