ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 3)
ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 3)
भगवान श्रेयांसनाथ जी का राज्याभिषेक और वैराग्य
आनन्दपूर्वक वृद्धिगत होते हुए राजकुमार श्रेयांसनाथ युवावस्था को प्राप्त हुए। पिता ने उनका विवाह किया और राज्याभिषेक करके उन्हें सिंहपुरी के राजसिंहासन पर बैठाया। उनके पुण्यकर्म उत्तम भोग-सामग्री द्वारा उनकी सेवा करते थे। वे मात्र बाह्यसमृद्धि में ही नहीं, अपितु अंतरंग श्रेय मार्ग में भी वृद्धिगत थे। पुण्य-प्रताप से उन्हें अर्थ-प्राप्ति के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता था, मात्र मोक्ष हेतु वे राज्य-संचालन के साथ-साथ गुप्त रूप से पुरुषार्थ करते रहते थे। उनकी आयु 84 लाख वर्ष की थी, जिसमें से 63 लाख वर्ष, अब तक बाल्यावस्था, युवावस्था व राज्य-संचालन में बीत चुके थे।
एक बार महाराजा श्रेयांसनाथ वनक्रीड़ा हेतु उद्यान में गए। माघ का महीना था। वसन्त ऋतु का आगमन निकट होने से वृक्षों के पत्ते खिर गए थे और उनकी शोभा विलुप्त हो गई थी। शृंगार व वैभव से विरक्त हुए वृक्षों को देख कर महाराजा श्रेयांसनाथ का चित्त भी संसार से विरक्त हो गया। वे सोचने लगे कि वृक्षों के पत्तों की भांति यह वैभव भी मुझ से छूट जाएगा। जब तक मैं इन अस्थिर संयोगों से पार सिद्धपद की साधना नहीं करूँगा, तब तक मैं ध्रुवपद को प्राप्त नहीं कर सकूँगा। सिद्धपद को प्राप्त करके मैं अनन्त काल तक उसमें बैठ सकूँगा।
इस प्रकार वैराग्यधारा के वेगवान होने से उनकी चेतना सातवें गुणस्थान में आरूढ़ हो गई और अपने पुत्र ‘श्रेयस्कर’ को राज्य सौंप कर बारह वैराग्य भावनाओं का चिंतन करते हुए वे जिनदीक्षा को तत्पर हुए।
उसी समय ब्रह्मलोक से लौकान्तिक देवों ने आकर वैराग्यवन्त महाराज को वन्दन किया और स्तुति करते हुए कहा - अहो देव! आप ‘श्रेयांसनाथ’ होने से वास्तव में श्रेयरूप हैं। इस समय आप रत्नत्रय के श्रेयमार्ग पर चल रहे हैं। आपकी वीतरागता को देख कर हम प्रसन्नतापूर्वक उसका अनुमोदन करने ब्रह्मलोक से यहाँ आए हैं।
जगत का कल्याण करने वाले ऐसे महान मांगलिक अवसर के अनुरूप इन्द्र भी देवों सहित ‘विमलप्रभा’ नामक पालकी लेकर वहाँ आ पहुँचे और तीन ज्ञान की विमलप्रभा से शोभायमान भगवान श्रेयांसनाथ उस पालकी में आरूढ़ हुए। वह कल्याणकारी दिन था फाल्गुन कृष्ण एकादशी का।
मनोहर उद्यान में पहुँच कर महाराजा श्रेयांसनाथ ने वस्त्राभूषण आदि समस्त राजवैभव का त्याग किया और स्फटिक के समान उज्ज्वल शिला पर बैठ कर एक हज़ार राजाओं सहित स्वयं जिनदीक्षा ग्रहण की।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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