ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 4)
ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 4)
भगवान श्रेयांसनाथ का तप व केवलज्ञान कल्याणक
उन एक हज़ार मुनियों के मध्य सूर्य के समान तेजस्वी श्रेयांसनाथ मुनिराज आत्मचिन्तन में एकाग्र हुए और चिदानन्द तत्त्व में लीन होकर शुद्धोपयोग रूप परिणमित हुए। उनकी अचिन्त्य शांत मुद्रा को देख कर इन्द्र, देव, मनुष्य और तिर्यंच भी अपने चित्त में अनुपम शांति का अनुभव करने लगे। सभी शांति से प्रभु की वीतरागी मुद्रा को निहार रहे थे। उस समय हज़ारों प्रजाजनों ने भी वैराग्य भावनापूर्वक श्रावकव्रत अंगीकार किए और सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए। धन्य था उन तीर्थंकर प्रभु का दीक्षा कल्याणक का महोत्सव!!
दीक्षा लेकर आत्मध्यान में विराजमान श्रेयांसनाथ मुनिराज को शुद्धोपयोग के साथ ही सातवाँ गुणस्थान, चौथा दिव्य ज्ञान तथा सात महान ऋद्धियाँ प्रगट हुई। संज्वलन के अतिरिक्त सभी कषायों का अभाव हो गया। दो दिन के उपवास के पश्चात् वे मुनिराज सिद्धार्थनगर में पधारे और वहाँ नन्दराजा ने भक्तिसहित विधिपूर्वक प्रथम पारणा कराया। राजा के महान् पुण्ययोग से देवों ने दुन्दुभि वाद्य का उद्घोष किया और पुष्पवृष्टि की।
श्रेयांसनाथ मुनिराज ने लगभग दो वर्ष तक मौनदशापूर्वक विहार किया। तत्पश्चात् पुनः अपनी जन्मनगरी सिंहपुरी में पधारे। जिस मनोहर उद्यान में दीक्षा ली थी, उसी में एक वृक्ष के नीचे दो दिन का उपवास ले कर विराजमान हो गए।
शुद्धोपयोग की तलवार को शुक्लध्यान द्वारा सजा कर भयंकर मोहशत्रु पर प्रहार करने लगे। उसकी सेना नष्ट होने लगी। मात्र कुछ ही समय में प्रभु ने अनादि काल से अविजित रहने वाले मोह का सर्वथा नाश कर दिया। भगवान परिपूर्ण विजेता-जिन वीतरागी हुए और केवलज्ञान-निधान को प्राप्त करके सर्वज्ञ परमात्मा हुए। वह मंगल घड़ी थी माघ कृष्णा अमावस्या का संध्याकाल। प्रभु के आसपास अमावस्या का अंधकार नहीं, दैवी प्रकाश का पुंज फैला हुआ था।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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