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Showing posts from August, 2022

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 6)

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उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 6 ) भगवान मल्लिनाथ जी का ज्ञान कल्याणक व मोक्ष कल्याणक पौष कृष्णा द्वितीया को 19 वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ को केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्रलोक में आनन्द की लहर दौड़ गई। देवों ने तुरन्त पृथ्वी पर आकर दिव्य समवशरण की रचना की और भगवान का केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाया। उस धर्मसभा में भगवान का दर्शन करने जीवों की टोलियाँ उमड़ने लगी। उसमें प्रवेश करते ही ऐसा प्रतीत होता था जैसे हम मोक्ष मण्डप में आ गए हों। समवशरण की सबसे बड़ी विशेषता है कि उस भूमि के क्षेत्रफल की अपेक्षा अनेक गुणी संख्या में देव, मनुष्य व तिर्यंचों का समावेश हो जाता है। किसी को रोग या पीड़ा नहीं होती, क्षुधा-तृषा नहीं लगती, वैर-विरोध नहीं होता। मुमुक्षु जीवों का चित्त परम शांतिपूर्वक उन साक्षात् परमात्मा के दर्शन तथा धर्मश्रवण में लग जाता है। प्रभु मल्लिनाथ के समवशरण में 2200 केवली भगवान, ‘विशाखसेन’ आदि 28 गणधर, विविध लब्धिवान 40000 मुनिवर, ‘बंधुषेणा’ आदि 55000 आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ आत्मचिन्तन करती थी। देवगण व तिर्यंचों की संख्या का तो कोई पार ही नही...

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 5)

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उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 5 ) भगवान मल्लिनाथ जी का दीक्षा कल्याणक इस प्रकार परम वैराग्यपूर्वक प्रभु मल्लिकुमार ने अपने जिनदीक्षा के निर्णय की घोषणा की, जिसे सुनकर माता-पिता व प्रजाजन स्तब्ध रह गए। बारात में सम्मिलित होने आए राजा-महाराजा भी सोचने लगे - अरे! जब इस संसार की बारात को छोड़ कर प्रभु अब मोक्ष रमणी को वरण करने जा रहे हैं, तो हम भी उनके साथ चलेंगे और मोक्ष की साधना करेंगे। प्रभु मल्लिकुमार के साथ 300 राजा भी दीक्षा लेने को तैयार हो गए। ‘विवाह के समय वैराग्य’ की अनोखी घटना से स्वर्गलोक में भी खलबली मच गई। माता-पिता के मन में शोक व्याप्त हो गया। वे दोनों जानते थे कि अब किसी में इतनी शक्ति नहीं है जो वैरागी सिंह को विवाह के पिंजरे में कैद कर सके, परन्तु पुत्रमोह से उनका हृदय विदीर्ण होने लगा। प्रभु मल्लिकुमार ने वैराग्य-सम्बोधन द्वारा उनके मोह को दूर करते हुए कहा - हे माताश्री! हे पिताश्री! इस समय मुझे पुत्र के रूप में देख कर आपको जो आनन्द होता है, उससे कहीं अधिक आनन्द मुझे परमात्मा के रूप में देख कर आपको होगा। आपको भी अंत में तो संसार से मोह का बंधन छोड़ कर वैराग...

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 4)

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उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 4 ) भगवान मल्लिनाथ जी की वैराग्य भावना अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ के पश्चात् एक हज़ार करोड़ वर्ष बीत जाने पर 19 वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ हुए। उनका बचपन अनोखा था। उनके साथ देव, क्रीड़ा करने आते थे। देवियाँ प्रभु को झूला झुलाती थी। उनकी बाल-क्रीड़ाएँ जीव हिंसा से रहित व निर्दोष थी। वे देव-देवियाँ, मनोविनोद के साथ-साथ आत्मा की बातें पूछ-पूछ कर प्रभु से आत्म ज्ञान भी प्राप्त कर लेती थी। इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का उदय आने से पूर्व ही उन बाल तीर्थंकर ने तीर्थंकरत्व का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। ज्ञानचेतना से भरपूर उनकी बाल चेष्टाएँ देखकर तथा अमृत जैसी मीठी वाणी सुनकर माता-पिता एवं प्रजाजन अति प्रसन्न होते और तृप्ति का अनुभव करते थे। मल्लिकुमार ने बाल्यावस्था छोड़ कर युवावस्था में प्रवेश किया। उनका शरीर व्रज्र के समान सुदृढ़, सर्वांग सुन्दर एवं उत्कृष्ट पुण्य रूप परमाणुओं से निर्मित था। उनकी आयु 55000 वर्ष की थी। इन्द्र स्वर्गलोक से उनके लिए भोगोपभोग की सामग्री भेजता था। ऐसे लोकोत्तर वैभव में भी उनके चित्त में राग-द्वेष से परे समभाव का वेदन चल ...

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 3)

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उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 3 ) भगवान मल्लिनाथ जी का गर्भ व जन्म कल्याणक भरतक्षेत्र के बिहार देश के निकट बंगभूमि है। उसके मध्यभाग में अत्यन्त शोभायमान मिथिलानगरी थी। जैन धर्म के परम उपासक ‘महाराजा कुंभ’ वहाँ राज्य करते थे। वे वास्तव में सम्यक्त्वादि गुणों से भरपूर कुंभ के समान ही थे। उनकी पटरानी का नाम ‘प्रजावती’ था। उस धार्मिक मिथिलानगरी के राजमहल के प्रांगण में अचानक करोड़ों रत्नों की वर्षा होने लगी। उसी समय आकाशमार्ग से कुछ देवांगनाएं वहाँ आई और महारानी प्रजावती की स्तुति कर के कहने लगी - हे माता! 6 मास पश्चात् अपराजित स्वर्गलोक से 19 वें तीर्थंकर का जीव आपकी कुक्षि में अवतरित होने वाला है। उसके महान् अतिशय पुण्य से आकर्षित होकर हम आपकी सेवा करने आए हैं। यह शुभ समाचार सुन कर महारानी प्रजावती की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। सारी मिथिलानगरी में भी चारों ओर आनन्द छा गया। महाराजा कुंभ और महारानी प्रजावती के जीवन में विशिष्ट परिवर्तन होने लगे। उनके विचार और परिणामों में विशुद्धता आने लगी। महारानी प्रजावती ने चैत्र शुक्ला प्रतिपदा की रात्रि को तीर्थंकर के जन्मसूचक दैवी ह...

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 2)

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उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 2 ) भगवान मल्लिनाथ जी के पूर्वभव भगवान मल्लिनाथ जी पूर्वभव में - अहमिन्द्र भगवान मल्लिनाथ का जीव आराधना सहित समाधिमरण करके ‘अपराजित विमान’ में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ रत्नमयी उपपाद शैया पर उत्पन्न होने पर कुछ ही समय पश्चात् वे देव अति उत्तम वस्त्रालंकारों से सम्पूर्ण सुसज्जित यौवनावस्था को प्राप्त हुए। उस स्वर्ग लोक की अद्भुत आश्चर्यजनक ऋद्धियाँ देखकर क्षणभर के लिए तो वे स्तब्ध रह गए कि अरे! यह सब क्या है ? उसी समय उनको अवधिज्ञान प्रगट हुआ और उन्होंने जान लिया कि ‘पूर्वभव में मैंने जैन धर्म के रत्नत्रय का उत्तम प्रकार से पालन किया था तथा उत्तम तप किया था। उसी पुण्यबंध का यह फल है।’ अहो! धर्म की महिमा का क्या कहना! चैतन्य विभूति की महिमा का चिन्तवन करते ही उनका स्वर्गलोक की विभूति सम्बन्धी विस्मय शान्त हो गया। सर्वप्रथम वे उस देव विमान के शाश्वत जिनमंदिर में गए और भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र पूजा की। उस स्वर्गलोक में सभी देव सम्यग्दृष्टि थे और अधिकांश तो एक भवावतारी थे। वे स्वानुभवपूर्वक जानते थे कि आत्मा स्वयं ही सच्चा सुख है। आत्मा से भिन्न न अन्यत्र...

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 1)

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उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 1 ) भगवान मल्लिनाथ जी के पूर्वभव भगवान मल्लिनाथ जी पूर्वभव में - विदेह में वैश्रवण राजा भगवान मल्लिनाथ का पवित्र जीवन पूर्व भवों से ही रत्नत्रय द्वारा अलंकृत था। जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में वीतशोका नाम की एक सुन्दर नगरी है। मोक्ष के अभिलाषी धर्मात्माओं से भरपूर उस नगरी में जिन मंदिरों के उत्तम शिखरों पर लहराती हुई धर्मध्वजाएं सबको अपनी ओर आकर्षित करती हैं। क्या आप जानना चाहते हैं कि ऐसी सुन्दर नगरी का राजा कौन होगा ? सुन्दर नगरी का राजा भी तो सुन्दर ही होगा न! तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ का जीव स्वयं ही पूर्वभव में इस सुन्दर नगरी का राजा ‘वैश्रवण’ था। वे आत्मज्ञानी थे और उनका चित्त सदा रत्नत्रय की आराधना में लीन रहता था। एक बार वे राजसभा में बैठे थे, वहाँ उद्यान के माली ने आकर आनन्दपूर्वक बधाई दी कि ‘हे स्वामी! अपनी नगरी के चन्दनवन में आज सुगुप्ति नाम के महामुनिराज पधारे हैं। जिस प्रकार साधकजीवों का हृदय रत्नत्रय द्वारा खिल उठता है, उसी प्रकार सारा उद्यान बिना मौसम के आम आदि फल-फूलों से खिल उठा है।’ यह सुनते ही राजा ने अत्यन्त विभोर होकर आनन...

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 4)

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अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 4 ) प्रभु का ज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक महोत्सव भगवान अरहनाथ दिगम्बर जिनदीक्षा ग्रहण करके तुरन्त शुद्धोपयोगी होकर आत्मध्यान में लीन हुए और उसी समय उनको चौथा ज्ञान एवं सप्तम गुणस्थान प्रगट हुआ। दो दिन के उपवास के पश्चात् मुनिराज अरहनाथ ने चक्रपुर नगरी के राजा अपराजित के हाथ से पारणा किया। वे राजा अपराजित तीर्थंकर मुनिराज को आहारदान देकर धन्य हुए और मोक्षगामी बन गए। उस समय देवों ने भी रत्नवृष्टि की। भगवान अरहनाथ ने 16 वर्ष तक मुनि अवस्था में विचरण किया। तत्पश्चात् हस्तिनापुरी के दीक्षावन में आकर आत्मध्यान में विराजमान हुए। कार्तिक शुक्ला द्वादशी के दिन श्रेष्ठ शुक्लध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी चढ़ कर केवलज्ञान प्रगट किया। इस प्रकार भरतक्षेत्र के एकसाथ तीन तीर्थंकरों के कुल 12 कल्याणक मनाकर हस्तिनापुरी नगरी धन्य हो गई। इन्द्रादि देवों ने आकर प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव मनाया और दिव्य समवशरण की रचना की। भगवान अरहनाथ ने दिव्य ध्वनि द्वारा सात तत्त्वों और नौ पदार्थों का व रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का अलौकिक उपदेश दिया। उसे सुनकर लाखों जीव धर्म को प्राप्त हुए ...

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 3)

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अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 3 ) भगवान अरहनाथ जी का दीक्षा कल्याणक महोत्सव भगवान अरहनाथ के शरीर की ऊँचाई 30 धनुष तथा आयु 84000 वर्ष थी। उनका शरीर-सौन्दर्य सर्वश्रेष्ठ था। उनके चरणों में सुन्दर मत्स्य (मछली) का चिह्न था। यह 16 वें, 17 वें और 18 वें तीर्थंकर की त्रिपुटी है जो तीनों तीर्थंकर कामदेव भी हैं, चक्रवर्ती भी हैं और तीर्थंकर भी हैं तथा तीनों का जन्म हस्तिनापुरी में ही हुआ था। युवावस्था में प्रवेश करने पर राजकुमार अरहनाथ का विवाह अनेक देशों की सर्वगुणसम्पन्न राजकुमारियों के साथ हुआ। 21000 वर्ष की आयु में राजा सुदर्शन ने उनका राज्याभिषेक करके उन्हें मंडलेश्वर राजा बनाया। दूसरे 21000 वर्ष तक राज्य करने के पश्चात् उनके शस्त्रभण्डार में सुदर्शनचक्र उत्पन्न हुआ तथा उन्हें चक्रवर्ती पद की राज्यलक्ष्मी प्राप्त हुई। महाराजा अरहनाथ ने तीसरे 21000 वर्ष तक चक्रवर्ती के रूप में 6 खण्ड पर राज्य किया। एक बार चक्रवर्ती महाराजा अरहनाथ आकाश में शरद ऋतु के बादलों की सुन्दर रचना देख रहे थे कि बादल बिखर गए और वह रचना भी आकाश में विलीन हो गई। यह देखकर उन्हें संसार के समस्त संयोगों क...

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 2)

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अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 2 ) भगवान अरहनाथ जी का जन्म कल्याणक उस समय हस्तिनापुरी में भगवान शांतिनाथ के वंशज राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम मित्रसेना था। जब स्वर्ग में ‘अहमिन्द्र’ की आयु 6 मास शेष रह गई, तब उनके आगमन की पूर्व सूचनारूप हस्तिनापुरी के राजमहल में प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा के साथ-साथ सारी नगरी में पुण्यवृद्धि होने लगी। फाल्गुन तृतीया की रात्रि के पिछले प्रहर में महादेवी मित्रसेना ने उत्तम 16 मंगल स्वप्न देखे। उन स्वप्नों का फल तीर्थंकर का गर्भागमन जान कर वह अति आनन्दित हुई। ऐसा लगा कि मानो उन्हें त्रिलोक का राज्य मिल गया हो। उसी समय देवेन्द्रों ने आकर तीर्थंकर के माता-पिता का सम्मान किया और दिव्य वस्त्राभूषण भेंट किए। उन्होंने गर्भस्थ मंगल आत्मा की स्तुति की और गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। माता के दिन प्रसन्नतापूर्वक बीत रहे थे। गर्भवृद्धि होने पर भी उन्हें कोई कष्ट नहीं था। स्वर्गलोक की देवियाँ माता की सेवा में लगी थी। सवा नौ मास बीतने पर मंगसिर शुक्ला चतुर्दशी के दिन माता महारानी मित्रसेना ने दिव्य पुत्र को जन्म दिया। वे सातवें चक्रवर...

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 1)

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अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 1 ) भगवान अरहनाथ जी पूर्वभव में - विदेहक्षेत्र के राजा धनपति व अहमिन्द्र पद भगवान अरहनाथ भी अपने से पूर्व दो तीर्थंकरों की भांति पूर्वभव में जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र के क्षेमपुरी नगरी के धनपति नामक राजा थे। वे केवल राजलक्ष्मी के ही नहीं अपितु आत्मलक्ष्मी के भी स्वामी थे, स्वानुभूति से युक्त थे और क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे। पुण्यजन्य राजवैभव और आत्मजन्य धर्म वैभव - इन दोनों का सुयोग होने पर भी वे दोनों को एक नहीं रखते थे। वे सदा धर्म की प्रधानता रखते थे और उनका मन मोक्ष की साधना में ही लगा रहता था। मोक्ष के साधक को मोक्षसाधना के अनुकूल सुयोग मिलते ही रहते हैं। तदनुसार महाराजा धनपति को भी एक उत्तम सुयोग प्राप्त हुआ। उनकी नगरी में अर्हत्वन्दन तीर्थंकर का आगमन हुआ। उनकी दिव्य ध्वनि का श्रवण करते हुए महाराजा धनपति को रत्नत्रय की भावना जागृत हो गई और उनका चित्त संसार से विरक्त हो गया। राजपाट छोड़ कर उन्होंने प्रभु के चरणों में जिनदीक्षा धारण कर ली। वे शुद्ध परिणाम द्वारा रत्नत्रय रूप मोक्ष की साधना करने लगे। उनको बारह अंगों का ज्ञान उदित हुआ और दर्शनवि...