अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 2)

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 2)

भगवान अरहनाथ जी का जन्म कल्याणक

उस समय हस्तिनापुरी में भगवान शांतिनाथ के वंशज राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम मित्रसेना था। जब स्वर्ग में ‘अहमिन्द्र’ की आयु 6 मास शेष रह गई, तब उनके आगमन की पूर्व सूचनारूप हस्तिनापुरी के राजमहल में प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा के साथ-साथ सारी नगरी में पुण्यवृद्धि होने लगी।

फाल्गुन तृतीया की रात्रि के पिछले प्रहर में महादेवी मित्रसेना ने उत्तम 16 मंगल स्वप्न देखे। उन स्वप्नों का फल तीर्थंकर का गर्भागमन जान कर वह अति आनन्दित हुई। ऐसा लगा कि मानो उन्हें त्रिलोक का राज्य मिल गया हो। उसी समय देवेन्द्रों ने आकर तीर्थंकर के माता-पिता का सम्मान किया और दिव्य वस्त्राभूषण भेंट किए। उन्होंने गर्भस्थ मंगल आत्मा की स्तुति की और गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया।

माता के दिन प्रसन्नतापूर्वक बीत रहे थे। गर्भवृद्धि होने पर भी उन्हें कोई कष्ट नहीं था। स्वर्गलोक की देवियाँ माता की सेवा में लगी थी। सवा नौ मास बीतने पर मंगसिर शुक्ला चतुर्दशी के दिन माता महारानी मित्रसेना ने दिव्य पुत्र को जन्म दिया। वे सातवें चक्रवर्ती और अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ थे। तीनों लोकों में आनन्द-मंगल छा गया। इन्द्रों द्वारा भगवान का जन्मकल्याणक महोत्सव हस्तिनापुरी के प्रजाजनों के साथ हर्षोल्लासपूर्वक मनाया गया। प्रभु के मंगल जन्म का पुण्यप्रभाव तो सातवें नरक से लेकर सर्वार्थसिद्धि के विमानों तक तीनों लोकों में फैल गया और सब जीव क्षण भर के लिए संतुष्ट हो गए।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री अरहनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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