अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 4)
अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 4)
प्रभु का ज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक महोत्सव
भगवान अरहनाथ दिगम्बर जिनदीक्षा ग्रहण करके तुरन्त शुद्धोपयोगी होकर आत्मध्यान में लीन हुए और उसी समय उनको चौथा ज्ञान एवं सप्तम गुणस्थान प्रगट हुआ।
दो दिन के उपवास के पश्चात् मुनिराज अरहनाथ ने चक्रपुर नगरी के राजा अपराजित के हाथ से पारणा किया। वे राजा अपराजित तीर्थंकर मुनिराज को आहारदान देकर धन्य हुए और मोक्षगामी बन गए। उस समय देवों ने भी रत्नवृष्टि की।
भगवान अरहनाथ ने 16 वर्ष तक मुनि अवस्था में विचरण किया। तत्पश्चात् हस्तिनापुरी के दीक्षावन में आकर आत्मध्यान में विराजमान हुए। कार्तिक शुक्ला द्वादशी के दिन श्रेष्ठ शुक्लध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी चढ़ कर केवलज्ञान प्रगट किया। इस प्रकार भरतक्षेत्र के एकसाथ तीन तीर्थंकरों के कुल 12 कल्याणक मनाकर हस्तिनापुरी नगरी धन्य हो गई। इन्द्रादि देवों ने आकर प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव मनाया और दिव्य समवशरण की रचना की।
भगवान अरहनाथ ने दिव्य ध्वनि द्वारा सात तत्त्वों और नौ पदार्थों का व रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का अलौकिक उपदेश दिया। उसे सुनकर लाखों जीव धर्म को प्राप्त हुए और मोक्ष के मार्ग पर चलने लगे।
उनके समवशरण में ‘कुंभस्वामी’ आदि 30 गणधर उस दिव्य वाणी से ज्ञान प्राप्त कर रहे थे। कुल 50000 मुनिवर वहाँ विराजमान होकर आपकी धर्मसभा को सुशोभित कर रहे थे। आपके श्रीमण्डप में 60000 आर्यिकाएँ थी। एक लाख साठ हज़ार श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ समवशरण में मोक्ष की साधना कर रहे थे। देवों और तिर्यंचों की तो कोई गिनती ही नहीं थी। आपकी धर्मसभा में जीव वीतरागता की प्रेरणा प्राप्त करते थे और क्रूर प्राणी भी हिंसक भाव छोड़ कर शांत हो कर धर्मश्रवण करते थे।
सर्वज्ञ भगवान अरहनाथ ने 21000 वर्ष तक भरतक्षेत्र में विचरण किया और धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। जब उनकी आयु एक मास शेष रह गई तब वे सम्मेदशिखर पधारे। विहार और वाणी थम गए और चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन वे योगनिरोध करके संसार से मुक्त होकर सिद्धपुरी में पधारे।
हे अरहनाथ देव! राग-मोह रहित जैसा सिद्धपद आपने प्राप्त किया, वैसा ही सिद्धपद शीघ्र ही हमें भी प्राप्त हो।
।।ओऽम् श्री अरहनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
Comments
Post a Comment