उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 3)
उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 3)
भगवान मल्लिनाथ जी का गर्भ व जन्म कल्याणक
भरतक्षेत्र के बिहार देश के निकट बंगभूमि है। उसके मध्यभाग में अत्यन्त शोभायमान मिथिलानगरी थी। जैन धर्म के परम उपासक ‘महाराजा कुंभ’ वहाँ राज्य करते थे। वे वास्तव में सम्यक्त्वादि गुणों से भरपूर कुंभ के समान ही थे। उनकी पटरानी का नाम ‘प्रजावती’ था। उस धार्मिक मिथिलानगरी के राजमहल के प्रांगण में अचानक करोड़ों रत्नों की वर्षा होने लगी। उसी समय आकाशमार्ग से कुछ देवांगनाएं वहाँ आई और महारानी प्रजावती की स्तुति कर के कहने लगी - हे माता! 6 मास पश्चात् अपराजित स्वर्गलोक से 19वें तीर्थंकर का जीव आपकी कुक्षि में अवतरित होने वाला है। उसके महान् अतिशय पुण्य से आकर्षित होकर हम आपकी सेवा करने आए हैं।
यह शुभ समाचार सुन कर महारानी प्रजावती की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। सारी मिथिलानगरी में भी चारों ओर आनन्द छा गया। महाराजा कुंभ और महारानी प्रजावती के जीवन में विशिष्ट परिवर्तन होने लगे। उनके विचार और परिणामों में विशुद्धता आने लगी। महारानी प्रजावती ने चैत्र शुक्ला प्रतिपदा की रात्रि को तीर्थंकर के जन्मसूचक दैवी हाथी आदि 16 मंगलसूचक स्वप्न देखे। ठीक उसी समय भगवान मल्लिनाथ के जीव ने अपराजित विमान से चयकर महारानी के गर्भ में प्रवेश किया। जगत के लिए यह एक महामांगलिक क्षण था।
इन्द्रादि देव मिथिलानगरी में आए और माता-पिता का सम्मान करके प्रभु का गर्भकल्याणक मनाया। देवकुमारियाँ माता का मनोरंजन करती व उनकी सेवा करती। वे अनेक प्रकार से तीर्थंकर की महिमा गा कर माता की धर्मभावना को पुष्ट करती। यह भी एक आश्चर्य ही था कि गर्भस्थ शिशु की वृद्धि के साथ-साथ माता का उदर नहीं बढ़ता था। माता व पुत्र दोनों के सुखमय दिन व्यतीत हो रहे थे।
मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी का दिन था। इन्द्र की सभा लगी हुई थी। अचानक इन्द्र का आसन डोलने लगा। इन्द्र ने आश्चर्यचकित होकर अपने अवधिज्ञान से जाना कि भरतक्षेत्र की मिथिलानगरी में तीर्थंकर का अवतार हुआ है। इन्द्र अपने परिकर के साथ जय-जयकार करते हुए भगवान का जन्मोत्सव मनाने मिथिलानगरी में आए। आकाश में दैवी वाद्य बजने लगे। उस समय मिथिलानगरी की शोभा देखते ही बनती थी कि ‘अरे! यह मिथिलानगरी नगरी है या अमरपुरी।’
एक देव ने ऐरावत का रूप धारण किया और इन्द्र ने बाल तीर्थंकर को मेरुपर्वत पर ले जाकर उनका 1008 कलशों में भरे क्षीरसागर के जल से जन्माभिषेक किया। तत्पश्चात् इन्द्र ने जगत को आश्चर्यचकित कर देने वाला ताण्डव नृत्य किया और इन्द्राणी ने स्वर्ग से लाए हुए सर्वोत्तम वस्त्राभूषण द्वारा भगवान का शृंगार किया और मंगलतिलक लगाया। भगवान के चरण में ‘कुंभ’ (कलश) का मंगल चिह्न था। इन्द्र ने ‘मल्लिकुमार’ नाम से सम्बोधित करके उनके 1008 उत्तम गुणों का वर्णन करके प्रभु की महान् स्तुति की।
जन्माभिषेक के पश्चात् प्रभु की शोभायात्रा लेकर इन्द्र मिथिलानगरी के राजमहल में आए और आनन्दमय नृत्यनाटक द्वारा प्रभु का जन्मोत्सव मनाया। मिथिलानगरी के प्रजाजन आज स्वयं को स्वर्ग के देवों से भी अधिक गौरवशाली मान रहे थे, क्योंकि स्वर्गलोक के राजा उनकी नगरी में आकर नृत्य कर रहे थे।
प्रभु के जन्मोत्सव से आनन्दित होकर महाराजा कुंभ की ओर से याचकों को इच्छानुसार दान दिया जा रहा था, परन्तु प्रजाजन इतने तृप्त थे कि लेने वालों की संख्या बहुत कम थी। गली-गली और घर-घर में ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थी। मंगल बधाई के गीत गाए जा रहे थे, रत्नों से चौक पूरे जा रहे थे। ‘अहा! अपनी नगरी में भगवान का जन्म हुआ है’ - यह बात सभी स्त्री-पुरुषों व बाल-वृद्धों की चर्चा का विषय बनी हुई थी। सभी भगवान की दिव्यता को देख कर मोहित हो रहे थे। भगवान के आत्मिक सौन्दर्य के दर्शन करके वे स्वयं भी सम्यक्त्व आदि भावों द्वारा अपनी आत्मा की शोभा का अनुभव कर रहे थे।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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