उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 5)

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 5)

भगवान मल्लिनाथ जी का दीक्षा कल्याणक

इस प्रकार परम वैराग्यपूर्वक प्रभु मल्लिकुमार ने अपने जिनदीक्षा के निर्णय की घोषणा की, जिसे सुनकर माता-पिता व प्रजाजन स्तब्ध रह गए। बारात में सम्मिलित होने आए राजा-महाराजा भी सोचने लगे - अरे! जब इस संसार की बारात को छोड़ कर प्रभु अब मोक्ष रमणी को वरण करने जा रहे हैं, तो हम भी उनके साथ चलेंगे और मोक्ष की साधना करेंगे। प्रभु मल्लिकुमार के साथ 300 राजा भी दीक्षा लेने को तैयार हो गए।

‘विवाह के समय वैराग्य’ की अनोखी घटना से स्वर्गलोक में भी खलबली मच गई। माता-पिता के मन में शोक व्याप्त हो गया। वे दोनों जानते थे कि अब किसी में इतनी शक्ति नहीं है जो वैरागी सिंह को विवाह के पिंजरे में कैद कर सके, परन्तु पुत्रमोह से उनका हृदय विदीर्ण होने लगा।

प्रभु मल्लिकुमार ने वैराग्य-सम्बोधन द्वारा उनके मोह को दूर करते हुए कहा - हे माताश्री! हे पिताश्री! इस समय मुझे पुत्र के रूप में देख कर आपको जो आनन्द होता है, उससे कहीं अधिक आनन्द मुझे परमात्मा के रूप में देख कर आपको होगा। आपको भी अंत में तो संसार से मोह का बंधन छोड़ कर वैराग्य-पथ पर आना ही होगा। आप तो तत्त्व के ज्ञाता हो। जिस परमात्मपद की साधना हेतु मैं जा रहा हूँ, उसकी अनुमोदना करके आप भी उसकी भावना भाओ।

पिता बोले - देव! आपकी बात सत्य है। आप तो तीर्थंकर बनने के लिए ही अवतरित हुए हो। आप तो जगत को भी मोक्ष का मार्ग बता कर बंधन से मुक्त करने वाले हो। अब हमारा मोह दूर हो गया है। अब हम तुम्हें पुत्ररूप में नहीं, परमात्मा रूप में देख रहे हैं। हम भी आपके समवशरण में आकर व्रत अंगीकार करके आत्मा का कल्याण करेंगे।

वैरागी मल्लिकुमार उन्हें नमन करके वीतराग मार्ग पर चल दिए। उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उन्हें नमन किया और उनके वैराग्य की अनुमोदना की।

भगवान मल्लिनाथ बाल ब्रह्मचारी के रूप में भगवान वासुपूज्य के बाद दूसरे तीर्थंकर थे।

उत्तम वैराग्य भावनाओं का चिंतवन करते हुए मल्लिकुमार ने जिनदीक्षा हेतु वनगमन का निश्चय किया और उसी समय इन्द्र आदि देव भी दीक्षा कल्याणक मनाने के लिए ‘जयंती’ नामक सुन्दर शिविका लेकर मिथिलापुरी आ पहुँचे।

अपने राजकुमार को युवावस्था में राजपाट छोड़ कर शिविका में आरूढ़ होकर वनगमन करते हुए देख कर प्रजाजन भी गद्गद् होकर उनका अभिनन्दन कर रहे थे - अहा! देखो इस राजकुमार को। विवाह के अवसर पर ही यह राजभोगों को छोड़ कर दीक्षा लेने जा रहे हैं। लोग तो भोगों के पीछे दौड़ते हैं और यह वैरागी राजकुमार, प्राप्त हुए भोगों को बिना भोगे ही उनका त्याग कर रहा है। धन्य है इनका अवतार! धन्य है ऐसा वैराग्य।

श्वेतवन के उपशांत वातावरण में जिनदीक्षा का महामंगल उत्सव प्रारम्भ हुआ। देव एक साथ साढ़े बारह करोड़ बाजे बजा रहे थे, जिनसे परम शांत स्वर निकल रहे थे। प्रभु ने जनसमूह की ओर परम शांत दृष्टि से देखा और सबसे विदा लेका मुकुट-हार उतार दिए, मस्तक के कोमल केशों का लोच करके शरीर से परम अनासक्ति धारण की और सिद्धों को वंदन करके पंच महाव्रत धारी दिगम्बर मुनि हो गए और आत्मध्यान में उपयोग को एकाग्र किया।

दो दिन के उपवास के पश्चात् मुनिराज मल्लिकुमार को मिथिलापुरी में नंदिषेण राजा ने नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान देकर पारणा कराया।

प्रभु मल्लिनाथ ने मोह राजा की सेना के सेनापति काम रूपी महाशत्रु का तो पहले ही घात कर दिया था, इसलिए शेष मोह को परास्त करने में उन्हें अधिक देर नहीं लगी। मुनिदशा में मात्र 6 दिन में ही शुद्धात्मा के ध्यान की प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित करके उसमें घातिकर्मों का दहन कर दिया और मात्र 6 दिन में ही केवलज्ञान प्रगट करके परमात्मा बन गए। सभी तीर्थंकरों में मुनिअवस्था में रहने का सबसे न्यूनतम काल भगवान मल्लिनाथ का ही है। भगवान मल्लिनाथ के चार कल्याणक मिथिलापुरी में हुए। धन्य है वह मिथिलापुरी और धन्य हैं वहाँ के प्रजाजन!

क्रमशः

।।ओऽम् श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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