अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 1)

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 1)

भगवान अरहनाथ जी पूर्वभव में - विदेहक्षेत्र के राजा धनपति व अहमिन्द्र पद

भगवान अरहनाथ भी अपने से पूर्व दो तीर्थंकरों की भांति पूर्वभव में जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र के क्षेमपुरी नगरी के धनपति नामक राजा थे। वे केवल राजलक्ष्मी के ही नहीं अपितु आत्मलक्ष्मी के भी स्वामी थे, स्वानुभूति से युक्त थे और क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे। पुण्यजन्य राजवैभव और आत्मजन्य धर्म वैभव - इन दोनों का सुयोग होने पर भी वे दोनों को एक नहीं रखते थे। वे सदा धर्म की प्रधानता रखते थे और उनका मन मोक्ष की साधना में ही लगा रहता था।

मोक्ष के साधक को मोक्षसाधना के अनुकूल सुयोग मिलते ही रहते हैं। तदनुसार महाराजा धनपति को भी एक उत्तम सुयोग प्राप्त हुआ। उनकी नगरी में अर्हत्वन्दन तीर्थंकर का आगमन हुआ। उनकी दिव्य ध्वनि का श्रवण करते हुए महाराजा धनपति को रत्नत्रय की भावना जागृत हो गई और उनका चित्त संसार से विरक्त हो गया। राजपाट छोड़ कर उन्होंने प्रभु के चरणों में जिनदीक्षा धारण कर ली।

वे शुद्ध परिणाम द्वारा रत्नत्रय रूप मोक्ष की साधना करने लगे। उनको बारह अंगों का ज्ञान उदित हुआ और दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हुआ। अनेक वर्षों तक चारित्रसाधना करके अंत में उत्तम आत्मसाधना सहित उन्होंने प्रायोपगमन संन्यास धारण किया और समाधिमरण करके ‘सर्वार्थसिद्धि’ के चारों ओर जो ‘अनुत्तर विमान’ हैं, उनमें से ‘जयन्त’ विमान में ‘अहमिन्द्र’ हुए। वे अगले भव में अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ होंगे।

उन ‘अहमिन्द्र’ की आयु 33 सागर थी। वहाँ बाह्य विषयों के बिना भी महान् सुख था। उनकी आत्मा अब मोक्ष के अत्यन्त निकट थी। उनके राग-द्वेष शांत हो चुके थे। ‘अहमिन्द्र’ पर्याय में असंख्यात् वर्ष व्यतीत हो जाने पर उनके मध्यलोक में अवतरण के लिए हम पुनः हस्तिनापुरी चलते हैं।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री अरहनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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