उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 2)
उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 2)
भगवान मल्लिनाथ जी के पूर्वभव
भगवान मल्लिनाथ जी पूर्वभव में - अहमिन्द्र
भगवान मल्लिनाथ का जीव आराधना सहित समाधिमरण करके ‘अपराजित विमान’ में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ रत्नमयी उपपाद शैया पर उत्पन्न होने पर कुछ ही समय पश्चात् वे देव अति उत्तम वस्त्रालंकारों से सम्पूर्ण सुसज्जित यौवनावस्था को प्राप्त हुए। उस स्वर्ग लोक की अद्भुत आश्चर्यजनक ऋद्धियाँ देखकर क्षणभर के लिए तो वे स्तब्ध रह गए कि अरे! यह सब क्या है? उसी समय उनको अवधिज्ञान प्रगट हुआ और उन्होंने जान लिया कि ‘पूर्वभव में मैंने जैन धर्म के रत्नत्रय का उत्तम प्रकार से पालन किया था तथा उत्तम तप किया था। उसी पुण्यबंध का यह फल है।’ अहो! धर्म की महिमा का क्या कहना!
चैतन्य विभूति की महिमा का चिन्तवन करते ही उनका स्वर्गलोक की विभूति सम्बन्धी विस्मय शान्त हो गया। सर्वप्रथम वे उस देव विमान के शाश्वत जिनमंदिर में गए और भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र पूजा की। उस स्वर्गलोक में सभी देव सम्यग्दृष्टि थे और अधिकांश तो एक भवावतारी थे। वे स्वानुभवपूर्वक जानते थे कि आत्मा स्वयं ही सच्चा सुख है। आत्मा से भिन्न न अन्यत्र कहीं सुख है और न ज्ञान है।
ऐसा जानने के कारण वे देव स्वर्गलोक की दिव्य विभूतियों के बीच असंख्य वर्षों तक रहने के बाद भी उससे मूर्च्छित नहीं होते अर्थात् अपनी चेतना को उससे अलिप्त रख सकते थे। ‘पर’ से विभक्त और आत्मा से एकत्व रूप परिणमन के द्वारा उनकी मोक्षसाधना चल रही थी।
वे दूसरे अहमिन्द्रों के साथ धार्मिक और आध्यात्मिक चर्चा करते थे। आत्मा के ज्ञायक स्वभाव की चर्चा करते-करते अनेक वर्ष बीत जाते और उन्हें उस समय का पता भी नहीं चलता। वहाँ वे मोक्ष के साधक महात्मा लगभग सिद्धों के समान सुखी जीवन जीते थे, इसलिए असंख्य वर्ष तक वहाँ रहने पर भी उन्हें अरुचि, थकान या बेचैनी नहीं होती। पर वे जानते हैं कि मोक्ष की साधना तो मनुष्य लोक में मुनिदशा में ही होगी।
अभी उनको मनुष्य लोक में आने में 6 मास शेष थे। उनके अवतरण से पहले यहाँ कैसे आश्चर्य और चमत्कार होते हैं, यह देखने के लिए हम मिथिलानगरी चलते हैं।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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