उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 6)
उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 6)
भगवान मल्लिनाथ जी का ज्ञान कल्याणक व मोक्ष कल्याणक
पौष कृष्णा द्वितीया को 19वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ को केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्रलोक में आनन्द की लहर दौड़ गई। देवों ने तुरन्त पृथ्वी पर आकर दिव्य समवशरण की रचना की और भगवान का केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाया। उस धर्मसभा में भगवान का दर्शन करने जीवों की टोलियाँ उमड़ने लगी। उसमें प्रवेश करते ही ऐसा प्रतीत होता था जैसे हम मोक्ष मण्डप में आ गए हों। समवशरण की सबसे बड़ी विशेषता है कि उस भूमि के क्षेत्रफल की अपेक्षा अनेक गुणी संख्या में देव, मनुष्य व तिर्यंचों का समावेश हो जाता है। किसी को रोग या पीड़ा नहीं होती, क्षुधा-तृषा नहीं लगती, वैर-विरोध नहीं होता। मुमुक्षु जीवों का चित्त परम शांतिपूर्वक उन साक्षात् परमात्मा के दर्शन तथा धर्मश्रवण में लग जाता है।
प्रभु मल्लिनाथ के समवशरण में 2200 केवली भगवान, ‘विशाखसेन’ आदि 28 गणधर, विविध लब्धिवान 40000 मुनिवर, ‘बंधुषेणा’ आदि 55000 आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ आत्मचिन्तन करती थी। देवगण व तिर्यंचों की संख्या का तो कोई पार ही नहीं था। सब जिनभक्ति में तत्पर थे और वीतराग के वचनामृत द्वारा शांतरस का पान करते थे।
भगवान मल्लिनाथ ने 54900 वर्ष तक भरतक्षेत्र में मंगल विहार किया और अपने दिव्य उपदेश से लाखों करोड़ों जीवों को धर्म मार्ग पर लगा कर उनका कल्याण किया।
प्रभु मल्लिनाथ को केवलज्ञान होने की बात सुनते ही पिताश्री कुंभ महाराज और माताश्री प्रजावती आश्चर्यमुग्ध होकर तत्काल समवशरण में आ पहुँचे। उन्हें तो कल्पना भी नहीं थी कि मात्र 6 दिन में हम अपने लाडले पुत्र को अपनी ही नगरी में भगवान के रूप में देखेंगे। 5 दिन पूर्व जिसके वियोग में वे शोकसंतप्त हो रहे थे, उसी को आज दिव्य विभूति सहित परमात्मा रूप में देख कर वे आनन्दविभोर हो गए। उनका शोक संताप एकदम समाप्त हो गया। प्रभु की वाणी में चैतन्य के वीतराग स्वरूप की अद्भुत महिमा सुनते ही उन्होंने आत्मानुभव के लिए अपने उपयोग को भी अन्तर्मुख किया और विशुद्ध परिणामों की वृद्धि द्वारा चारित्रदशा ग्रहण करके उन्होंने अपना आत्मकल्याण किया।
पिताश्री कुंभ महाराज तो उसी भव में मोक्ष को प्राप्त हुए और महारानी प्रजावती एक भवावतारी होकर स्वर्ग सिधारी।
अंत में जब भगवान की आयु एक मास शेष रह गई, तब प्रभु सम्मेदशिखर पर आकर स्थिर हुए और काय-मन-वचन के योगों का निरोध करके सिद्धपद में जाने की तैयारी की। फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन क्षण भर में 14वें गुणस्थान में पहुँच कर दूसरे ही क्षण वे संसार से सर्वथा मुक्त होकर ‘संबल टोंक’ से सिद्धालय में विराजमान हो गए। देवों ने आकर उनका मोक्ष कल्याणक मनाया।
उन परम पुरुष भगवान मल्लिनाथ का यह मंगल जीवन भव्य जीवों को मोक्ष पुरुषार्थ का प्रेरक बने और उनका यह भाव-स्तवन हमारे रत्नत्रय की विशुद्धि का कारण बने।
।।ओऽम् श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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