उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 4)

उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जी (भाग - 4)

भगवान मल्लिनाथ जी की वैराग्य भावना

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ के पश्चात् एक हज़ार करोड़ वर्ष बीत जाने पर 19वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ हुए। उनका बचपन अनोखा था। उनके साथ देव, क्रीड़ा करने आते थे। देवियाँ प्रभु को झूला झुलाती थी। उनकी बाल-क्रीड़ाएँ जीव हिंसा से रहित व निर्दोष थी। वे देव-देवियाँ, मनोविनोद के साथ-साथ आत्मा की बातें पूछ-पूछ कर प्रभु से आत्म ज्ञान भी प्राप्त कर लेती थी।

इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का उदय आने से पूर्व ही उन बाल तीर्थंकर ने तीर्थंकरत्व का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। ज्ञानचेतना से भरपूर उनकी बाल चेष्टाएँ देखकर तथा अमृत जैसी मीठी वाणी सुनकर माता-पिता एवं प्रजाजन अति प्रसन्न होते और तृप्ति का अनुभव करते थे।

मल्लिकुमार ने बाल्यावस्था छोड़ कर युवावस्था में प्रवेश किया। उनका शरीर व्रज्र के समान सुदृढ़, सर्वांग सुन्दर एवं उत्कृष्ट पुण्य रूप परमाणुओं से निर्मित था। उनकी आयु 55000 वर्ष की थी। इन्द्र स्वर्गलोक से उनके लिए भोगोपभोग की सामग्री भेजता था। ऐसे लोकोत्तर वैभव में भी उनके चित्त में राग-द्वेष से परे समभाव का वेदन चल रहा था। उनका जीवन ‘सदन निवासी तदपि उदासी’ के अनुसार व्रत-सम्पन्न था। अहा! निर्विकल्प रस का पान करने वाले भगवान, संसार में रहते हुए भी संसार में नहीं थे। उनके अंतर के इस गुप्त रहस्य को ज्ञानीजन ही जानते थे।

युवराज राजसभा में भी जाते और न्याय-नीति एवं धर्म की आश्चर्यजनक चर्चा करके सभाजनों को मुग्ध कर देते थे। माता-पिता उनके विवाह के लिए उत्सुक थे, परन्तु कुमार की उदास वृत्ति देख कर वे आग्रह नहीं कर सकते थे। कुमार मल्लिनाथ का मन तो मोक्ष प्राप्ति में ही लगा हुआ था। एक बार राजा पृथ्वीपति की ओर से उनकी पुत्री रतिकुमारी के लिए उनके विवाह का प्रस्ताव आया। रतिकुमारी अति रूपवती और सर्वगुण संपन्न थी। अतः माता-पिता को वह पसन्द थी, पर मल्लिकुमार मौन रहे। उनकी मंद मुस्कान देख कर माता-पिता उनकी सहमति समझ गए और विवाह की तैयारियाँ होने लगी।

मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को उनका जन्मदिन था और विवाह का भी वही दिन निश्चित हुआ था। मिथिलानगरी में सर्वत्र आनन्द छाया हुआ था। राजभवन को दैवी अलंकारों से सजाया हुआ था। मित्रदेवों ने ‘अपराजित विमान’ के समान राजमहल के प्रांगण में एक अद्भुत दैवी रचना की थी।

मल्लिकुमार ने पूछा - अरे! यह सब सजावट किसलिए की गई है। माता ने हँस कर कहा - बेटा! यह सब तुम्हारे विवाह की तैयारियाँ हो रही हैं। तुम्हारी बारात में जाने के लिए राजा-महाराजा भी आ गए हैं।

मल्लिकुमार क्षण भर के लिए स्तब्ध होकर माता की ओर देखते रहे, फिर बोले - माँ! मैं अपनी आत्मा को संसार के बंधन में नहीं बाँधना चाहता। मुझे तो केवल मुक्तिसुन्दरी की चाह है और मुझे संसार की किसी स्त्री के मोह-बंधन में न पड़ कर आत्मसाधना करनी है।

माता ने कहा - बेटा! तू अभी तो राजसुख भोग। समय आने पर आत्मसाधना भी कर लेना।

मल्लिकुमार बिना कुछ बोले गहरे चिन्तन में डूब गए। बारात का प्रस्थान हुआ। दूल्हा मल्लिकुमार अद्भुत अलंकारों से सुसज्जित गजराज पर आरूढ़ थे। बारात राजभवन से बाहर निकल रही थी। तभी नगरी की अद्भुत शोभा व सजावट तथा ‘अपराजित विमान’ के समान रचना मल्लिकुमार को दृष्टिगोचर हुई।

अचानक उनके ज्ञान में आभास हुआ - अरे! ऐसी अनुपम शोभा तो मैंने पूर्वकाल में भी देखी है। उन्हें तत्काल जातिस्मरण हो गया - अरे! मैं पिछले जन्म में समाधिपूर्वक मरण करके ‘अपराजित विमान’ में अहमिन्द्र हुआ था। उस स्वर्गलोक की विभूति के सामने इस शोभा का क्या मूल्य? जिस विभूति से ममत्व था, उसका भी तो वियोग हुआ न! फिर इस क्षणभंगुर शोभा के संयोग से आत्मा को क्या लेना-देना? आत्मा का कल्याण तो वीतराग भाव से ही है। उससे पिछले भव में मैं वैश्रवण राजा था और मैंने रत्नत्रय व्रत धारण किया था। अब इन तुच्छ भोगों में आसक्त रहना मुझे शोभा नहीं देता।

मल्लिकुमार का चित्त संसार से विरक्त हो गया। बारात की साज-सज्जा के बदले जिनदीक्षा का वातावरण निर्मित हो गया। वैरागी प्रभु चिंतवन करने लगे - ये सांसारिक भोगोपभोग तो जीव के लिए बंध का कारण हैं। जिन्हें मात्र मोक्ष की अभिलाषा है, ऐसे मुमुक्षु को विवाह जैसे बंधन में बंधना शोभा नहीं देता। मैं विवाह नहीं करूँगा। मैं तो आज ही जिनदीक्षा लेकर परमात्म पद की आराधना करूँगा।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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