अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 3)

अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी (भाग - 3)

भगवान अरहनाथ जी का दीक्षा कल्याणक महोत्सव

भगवान अरहनाथ के शरीर की ऊँचाई 30 धनुष तथा आयु 84000 वर्ष थी। उनका शरीर-सौन्दर्य सर्वश्रेष्ठ था। उनके चरणों में सुन्दर मत्स्य (मछली) का चिह्न था। यह 16वें, 17वें और 18वें तीर्थंकर की त्रिपुटी है जो तीनों तीर्थंकर कामदेव भी हैं, चक्रवर्ती भी हैं और तीर्थंकर भी हैं तथा तीनों का जन्म हस्तिनापुरी में ही हुआ था।

युवावस्था में प्रवेश करने पर राजकुमार अरहनाथ का विवाह अनेक देशों की सर्वगुणसम्पन्न राजकुमारियों के साथ हुआ। 21000 वर्ष की आयु में राजा सुदर्शन ने उनका राज्याभिषेक करके उन्हें मंडलेश्वर राजा बनाया। दूसरे 21000 वर्ष तक राज्य करने के पश्चात् उनके शस्त्रभण्डार में सुदर्शनचक्र उत्पन्न हुआ तथा उन्हें चक्रवर्ती पद की राज्यलक्ष्मी प्राप्त हुई।

महाराजा अरहनाथ ने तीसरे 21000 वर्ष तक चक्रवर्ती के रूप में 6 खण्ड पर राज्य किया। एक बार चक्रवर्ती महाराजा अरहनाथ आकाश में शरद ऋतु के बादलों की सुन्दर रचना देख रहे थे कि बादल बिखर गए और वह रचना भी आकाश में विलीन हो गई। यह देखकर उन्हें संसार के समस्त संयोगों की क्षणभंगुरता का विचार आया .... अरे! यह राजवैभव, यह शरीर सभी संयोग क्षणभंगुर हैं। वे किसी जीव के साथ स्थिर रहने वाले नहीं है। स्थिर रहने वाला तो केवल शाश्वत ज्ञायक स्वभाव ही है।

ऐसा विचार कर वे वैराग्य भावनाओं का चिंतवन करने लगे। उसी समय उन्हें जातिस्मरण होने पर वैराग्य दृढ़ हुआ और वे चक्रवर्ती पद त्याग कर जिनदीक्षा लेने को तत्पर हुए। स्वर्ग से लौकान्तिक देवों ने आकर स्तुतिपूर्वक उनकी दीक्षा का अनुमोदन किया और उनके वैराग्य की प्रशंसा की। इन्द्र भी ‘वैजयन्त’ नामक दिव्य शिविका लेकर प्रभु का दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाने आ पहुँचे। चारों ओर परम वैराग्य का वातावरण छा गया। अरहनाथ प्रभु के साथ 1000 राजा भी दीक्षा ग्रहण करने वन में चले गए और चक्रवर्ती महाराजा अरहनाथ की हज़ारों रानियों ने भी संसार से विरक्त होकर आर्यिका व्रत धारण कर लिया।

वैशाख शुक्ला दशमी की सांयकाल महाराजा अरहनाथ चक्रवर्ती पद का समस्त वैभव त्याग कर हस्तिनापुरी के सहेतुक वन में आए। उन्होंने समस्त वस्त्राभूषण त्याग कर दिगम्बर जिनदीक्षा ग्रहण की और सिद्धों को वन्दन करके मुनि बन गए।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री अरहनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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