बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 23)

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 23)

पाण्डवों का वैराग्य

बलभद्र जी श्री कृष्ण के लिए पानी लेकर जल्दी-जल्दी आए....और कहने लगे - भैया श्री कृष्ण! क्या तुम्हें निद्रा आ गई है? उठो! मैं जल लेकर आ गया हूँ, उसे पीकर अपनी तृषा शान्त करो।

....परन्तु कौन उठता और कौन बोलता? कौन पानी पीता? अत्यन्त भ्रातृस्नेह के कारण बलभद्र जी श्री कृष्ण की मृत्यु को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। 6 मास तक वे अत्यन्त शोक मग्न रहे। तब उनके सारथी सिद्धार्थ ने, जो मरकर देव हुआ था, सम्बोधन किया कि हे महाराज! जिस प्रकार रेत में से तेल नहीं निकलता, पत्थर पर धान नहीं उगता और मरा हुआ बैल घास नहीं खाता; उसी प्रकार मरा हुआ मनुष्य जीवित नहीं हो सकता। आप तो ज्ञानी हो, इसलिए श्री कृष्ण का मोह छोड़ो और संयम धारण करो।

सिद्धार्थ देव के सम्बोधन से बलभद्र का चित्त शांत हुआ और संसार से विरक्त होकर उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर ली।

उधर दक्षिण देश में पाण्डवों ने जरत्कुमार के मुख से द्वारिका नगरी का विनाश और श्री कृष्ण की मृत्यु का समाचार सुना। सुनते ही वे शोकमग्न हो गए। बलभद्र जी उन्हें आश्वासन देने गए फिर उन्होंने द्वारिका नगरी की नवरचना की और जरत्कुमार को राजसिंहासन पर बैठाया। परन्तु जब पाण्डवों ने देखा कि कहाँ नेमिनाथ और श्री कृष्ण की द्वारिका थी और कहाँ यह द्वारिका है....! तो उन्हें वैराग्य हो गया और वे चिन्तन करने लगे - अरे! समुद्र के बीच देवों द्वारा निर्मित द्वारिका नगरी तो जल कर भस्म हो गई, जहाँ श्री कृष्ण राज्य करते थे, जहाँ राजसभा में नेमिकुमार विराजते थे और प्रतिदिन मंगल उत्सव होते थे। वह नगरी सुनसान हो गई है। वे राजमहल कहाँ गए? वह राजवैभव कहाँ गया? और कहाँ चले गए उसे उपभोग करने वाले? नदी के प्रवाह के समान चंचल विषय-भोगों को भी स्थिर नहीं रखा जा सकता। विषयों की ऐसी विनश्वरता देख कर विवेकीजन उनसे विरक्त होते हैं और वीतरागी होकर आत्महित की साधना करते हैं।

इस प्रकार संसार से विरक्त होकर वे पाण्डव पल्लव देश में विराजमान श्री नेमिनाथ प्रभु के पास गए। प्रभु के दर्शन से उनका चित्त शांत हुआ। प्रभु के उपदेश से केवलज्ञान की महिमा सुन कर चिदानन्द तत्त्व की अनुभूति की तथा मोक्षसुख की परम महिमा सुन कर वे पाण्डव भी मोक्ष-साधना हेतु तत्पर हुए और विचारने लगे कि जब श्री कृष्ण जैसे चक्रवर्ती भी जल के बिना मृत्यु को प्राप्त हो गए, जब ऐसे महापुरुषों को भी पुण्य शरणभूत नहीं हुआ, वहाँ सामान्य पुरुष की तो बात ही क्या? पुण्य और संयोग तो अध्रुव और अशरण हैं, मात्र रत्नत्रय धर्म ही जीव को शरणभूत है।

इस प्रकार तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की धर्मसभा में पाण्डवों का चित्त संसार से विरक्त हुआ और पाँचों भाई जिनदीक्षा लेकर मुनिपद पर सुशोभित हो गए। उसी समय माता कुन्ती, द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि ने भी आर्यिका राजुलमती के संघ में दीक्षा धारण की। बलभद्र जी आराधनापूर्वक समाधिमरण करके स्वर्ग में गए।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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